भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-14

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4. माया तरण

9. श्रद्धा भागवते शास्त्रेऽनिंदामन्यत्र चापि हि।
मनो-वाक्-कर्म-दंड च सत्यं शम-तमावपि।।
अर्थः
भागवत-शास्त्र में श्रद्धा, अन्य शास्त्रों के प्रति आदर, मन, वाणी और कर्म का नियमन, सत्य, शम और दम,
 
10. श्रवणं कीर्तनं ध्यानं हरेरद्भुतकर्मणः।
जन्म-कर्म-गुणानां च तदर्थेऽखिल-चेष्टितम्।।
अर्थः
अद्भुत कर्म करने वाले भगवान् के जन्म-कर्म और गुण यानी लीलाओं का श्रवण, कीर्तन तथा ध्यान करना तथा सारे कर्म उसी के लिए करना,
 
11. इष्टं दत्तं तपो जप्तं वृत्तं यच्चात्मनः प्रियम्।
दारात् सुतान् गृहान् प्राणान् यत् परस्मै निवेदनम्।।
अर्थः
यज्ञ, दान, तप, जप, सदाचरण तथा जो कुछ अपने को प्रिय लगता हो, जैसे पत्नी, पुत्र, घर, प्राण आदि सबका सब परमेश्वर को अर्पण करना,
 
12. ऐवं कृष्णात्म-नायेषु मनुष्येषु च सौहृदम्।
परिचर्यां चोभयत्र महत्सु नृषु साधुषु।।
परस्परानुकथनं पावनं भगवद्-यशः।।
अर्थः
इसी तरह श्रीकृष्ण को जो अपना नाथ मानते हैं, उन भगवद् भक्तों से मैत्री, स्थावर-जंगम दोनों प्रकार के प्राणियों की, विशेषतः मनुष्यों की ओर उनमें भी महापुरुषों की, उनमें भी साधु-संतों की सेवा और भगवान् की पावन कीर्ति की आपस में चर्चा,
 
13. इति भागवतान् धर्मान् शिक्षन् भक्त्या तदुत्थया।
नारायणपरो मायां अंजस् तरति दुस्तराम्।।
अर्थः
इन भागवत-धर्मों को सीखकर उनसे प्राप्त भक्ति द्वारा जो भगवान् में निष्ठा रखेगा, वह दुस्तर माया-नदी को सहज ही तर जाएगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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