भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-19
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु
5. समृद्ध-कामो हीनो वा नारायण-परो मुनिः।
नोत्सर्पेत न शुष्येत सरिद्भिरिव सागरः।।
अर्थः
नदियाँ अपने में आ मिलने से समुद्र को न बाढ़ आती है और उनके न मिलने से न वह सूख जाता है। इसी तरह नारायण-पर यानी ईश्वर-भक्त मुनि की इच्छाएँ तृप्त होने पर न हर्षित हो और न उनके अतृप्त रहने पर भिन्न रहे।
6. तेजस्वी तपसा दीप्तो दुर्धर्षोदरभाजनः।
सर्वभक्षोऽपि युक्तात्मा नादत्ते मलमग्निवत्।।
अर्थः
आत्म-परायण मुनि को चाहिए कि अग्नि की तरह तेजस्वी, तपस्या से देदीप्यमान, अनाक्रमणीय, उदर जितना ही भोजन-पात्रवालायानी असंग्रही रहकर जो कुछ मिले, उसी का सेवन कर निर्मल रहे।
7. विसर्गाद्याः श्मशानान्ता भावा देहस्य नात्मनः।
कलानामिव चंद्रस्य कालेनाव्यक्त-वर्त्मना।।
अर्थः
जिस तरह चंद्रमा की कलाएँ घटती-बढ़ती हैं, चंद्र नहीं; उसी तरह जिनकी गति समझ से परे हैं, ऐसे अव्यक्त गति काल के प्रभाव से होने वाली जन्म-मरण आदि अवस्थाएँ देह की हैं, आत्मा को नहीं (यह चंद्र से शिक्षा है)।
8. गुणैर् गुणान् उपादत्ते यथाकालं विमुंचति।
न तेषु युज्यते योगा गोभिर् गा इव गोपतिः।।
अर्थः
जिस तरह सूर्य अपनी किरणों से पानी सोख लेता है और यथासमय उसे पुनः बरसा भी देता है, उसी तरह योगी भी इंद्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण करता और यथासमय त्याग भी देता है; लेकिन उनमें कभी आसक्त नहीं होता।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-