भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-25
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु
5. देहो गुरुर् मम विरक्ति-विवेक हेतुर्
विभ्रत् स्म सत्वनिधनं सततार्त्युदर्कम्।
तत्वान्येनन विमृशामि यथा तथापि
पारक्यमित्यवतितो विचराम्यसंगः।।
अर्थः
सर्वदा परिणाम में दुखःद और जन्म-मरणशील यह देह मेरा गुरु है। वह मुझे विवेक-वैराग्य की शिक्षा देती है। कारण उसी के सहारे में तत्व-विचार कर पाता हूँ। फिर भी वह देह ( मेरे अपने लिए नहीं, ) दूसरों के लिए है, यह समझकर मैं मुक्तसंग हो विचरता रहता हूँ।
6. सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयाऽऽत्म-शक्त्या
वृक्षान् सरीसृप-पशून् खग-दंश-मत्स्यान्।
तैस् तैर् अतुष्ट-हृदयः पुरुषं विधाय
ब्रह्मावलोकधिषणं मुदनाप देवः।।
अर्थः
अपनी मायारूप अनादि आत्म-शक्ति से वृक्ष रेंगने वाले प्राणी, पशु, पक्षी, मच्छर, मछली आदि अनेक प्रकार के जीवों के अनेक शरीर रचे, फिर भी ईश्वर को उनमें संतोष नहीं हुआ। फिर उसने ब्रह्म साक्षात्कार करने में समर्थ बुद्धिवाले मानव की सृष्टि की, तब उसे संतोष हुआ।
7. लब्ध्वा सुदुर्लभमिदं बहुसंभवान्ते
मानुष्यमर्थदमनित्यमपीह धीरः।
तूर्णं यतेत न पतेदनुमृत्यु यावत्
निःश्रेयसाय विषयः खलु सर्वतः स्यात्।।
अर्थः
अनेक जन्मों के बाद यह अति दुर्लभ, और अनित्य होने पर भी मोक्ष दिलाने में समर्थ मनुष्य-जन्म प्राप्त हुआ है। तो बुद्धिमान् पुरुष का कर्तव्य है कि मृत्यु के शिकंजे में पड़ने से पूर्व ही शीघ्र मोक्ष प्राप्ति का यत्न करे। ( नश्वर ) विषयों का भोग तो सभी योनियों में मिलता ही है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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