भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-36

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13 हंस-गीत

1. गुणेष्वाविशते चेतो गुणाश्चेतसि च प्रजाः।
जीवस्य देह उभयं गुणाश्चेतो मदात्मनः।।
अर्थः
( श्री भगवान् हंसरूप से सनक आदि ऋषियों को उपदेश देते हैं ) हे पुत्रो ! गुणों में चित्त प्रवेश करता और चित्त में गुण प्रवेश करते हैं तथा गुण और चित्त दोनों मिलकर मत्स्वरूप जीव की देह बनती है।
 
2. गुणेषु चाविशत् चित्तं अभीक्ष्णं गुणसेवया।
गुणाश्च चित्तप्रभवा प्रद्रूप उभयं त्यजेत्।।
अर्थः
बार-बार गुणों का सेवन करने से गुणों में चित्त मग्न होता है और परिणामस्वरूप उस चित्त से गुण उत्पन्न होते हैं। मद्रूप होकर इन दोनों का त्याग करना चाहिए।
 
3. यर्हि संसृति-बंधोऽयं आत्मनो गुणवृत्तिदः।
मयि तुर्ये स्थितो जह्यात् त्यागस् तद्गुण-चेतसाम्।।
अर्थः
चूँकि ( देहाभिमानरूप ) यह संसृति बंध आत्मा को गुण और वृत्ति देता है, इसलिए तुरीय ( चौथी अवस्था के साक्षी ) मुझमें स्थित होकर यह संसार-बंधन तोड़ दें, तो गुण और चित्त दोनों का त्याग हो जाएगा।
 
4. यो जागरे बहिरनुक्षणधर्मिणोऽर्थान्
भुंक्ते समस्तकरणैर् हृदि तत्सदृक्षान्।
स्वप्ने सुषुप्त उपसंहरते स ऐकः
स्मृत्यन्वयात् त्रिगुणवृत्तिदृर्गिद्रियेशः।।
अर्थः
जो जाग्रत-अवस्था में बाह्य जगत् में क्षणभंगुर पदार्थों का इंद्रियों से अनुभव लेता है, स्वप्न में तत्सदृश वस्तुओं का हृदय में अनुभव लेता है और गाढ़ निद्रा में सब समेट लेता है, वह त्रिगुणवृत्तियों का द्रष्टा, इंद्रियस्वामी, स्मृति अनुस्यूत होने के कारण एक ही है ( ऐसा सिद्ध होता है )।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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