भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-44
16 गुण-विकास
5. दंड-न्यासः परं दानं काम-त्यागस् तपः स्मृतम्।
स्वभाव-विजयः शौर्यं सत्यं च सम-दर्शनम्।।
अर्थः
किसी को भी दंड न देना, यह जो विश्व को अभयदान है, वही श्रेष्ठ ‘दान’ है। कामनाओं का त्याग ‘तप’ है। स्वभाव पर विजय ‘शौर्य’ है और सर्वत्र समदृष्टि ‘सत्य’ है।
6. ऋतं च सूनृता वाणी कविभिः परिकीर्तिता।
कर्मस्वसंगमः शौचं त्यागः संन्यास उच्यते।।
अर्थः
सत्य और मधुर भाषण को विज्ञजन ‘ऋत’ कहते हैं। कर्मों में आसक्त न होना ‘शुचिता’ है और संकल्प-विकल्प का त्याग ही सच्चा ‘संन्यास’ है।
7. धर्म इष्टं धनं नृणां यज्ञोऽहं भगवत्तमः।
दक्षिणा ज्ञान-संदेशः प्राणायामः परं बलम्।।
अर्थः
धर्म ही लोगों का ‘हितकर धन’ है। मैं परमश्रेष्ठ परमेश्वर ही ‘यज्ञ’ हूँ। ज्ञान का उपदेश ही ‘दक्षिणा’ और प्राणायाम ही श्रेष्ठ ‘बल’ है।
8. भगो म ऐश्वरो भावो लाभो मद्भक्तिरुत्त्मः।
विद्याऽऽत्मनि भिदाबाधो जुगुप्सा ह्रीर् अकर्मसु।।
अर्थः
भगवान् का षड्गुण ऐश्वर्य ही ‘भग’ है। मेरी भक्ति ही उत्तम ‘लाभ’ है। आत्मा में ( दिखाई देने वाले नानात्व के ) भेद का मिट जाना ही सच्ची ‘विद्या’ है और निंद्य कर्मों के बारे में घृणा ही ‘ह्री’ है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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