भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-46

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17. वर्णाश्रम-सार

 
1. अहिंसा सत्यमस्तेयं अकामक्रोधलोभता।
भूतप्रिय-हितेहा च धर्मोऽयं सार्व-वर्णिकः।।
अर्थः
हिंसा न करें, सत्य को न छोड़े, चोरी न करें, काम, क्रोध और लोभ के वश न हों तथा प्राणिमात्र का कल्याण और प्रिय करना चाहें, यब सब वर्णों के लिए समान लागू होने वाला धर्म है।
 
2. सर्वाश्रम-प्रयुक्तोऽयं नियमः कुलनंदन।
मद्भावः सर्वभूतेषु मनो-वाक्-काय-संयमः।।
अर्थः
हे कुलनंदन उद्धव! सब प्राणियों में मुझ परमेश्वर को देखना और मन, वाणी तथा तथा शरीर का संयम रखना- यह ब्रह्मचर्यादि चारों आश्रमों के लिए समान नियम है।
 
3. कुटुंबेषु न सज्जेत न प्रमाद्येत् कुटुंब्यपि।
विपश्चिन्नश्वरं पश्येत् अदृष्टमपि दृष्टवत्।।
अर्थः
परिवार में फँसे न रहें, कुटुम्बी होने पर भी ईश्वर-निष्ठा की उपेक्षा न करें। ज्ञानी पुरुष यह जान लें कि इस दृश्य जगत् की तरह अदृश्य स्वर्ग-सुखादि कर्म-फल भी नाशवान् है।
 
4. पुत्र-दाराप्त-बंधूनां संगमः पांथ-संगमः।
अनुदेहं वियन्त्येते स्वप्नो निद्रानुगो यथा।।
अर्थः
स्त्री, पुत्र, मित्र, भाई आदि का साथ राह चलते साथियों सा क्षणिक होता है। निद्रा में दिखाई देने वाला स्वप्न निद्रा के साथ ही टूट जाता है। इसी तरह प्रत्येक भिन्न देह के साथ स्त्री-पुत्रादि भी दूर हो जाते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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