भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-49

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19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति

 
1. ज्ञानं विशुद्धं विपुलं यथैतद्
वैराग्य-विज्ञान-युंत पुराणम्।
आख्याहि विश्वेश्वर! विश्वमूर्ते
त्वद्भक्ति-योगं च महद्-विमृग्यम्।।
अर्थः
हे विश्वेश्वर! विश्वरूप! अत्यंत निर्मल वैराग्य और अनुभव से युक्त यह सनातन ज्ञान विस्तार से मुझे बतलाइए। इसी तरह बड़े-बड़े महात्माओं द्वारा अन्वेषणीय अपना भक्तियोग भी मुझे सुनाइए।
 
2. ताप-त्रयेणाभिहतस्य घोरे
संतप्यमानस्य भवाध्वनीश।
पश्यामि नान्यच्छरणं तवांघ्रि
द्वंद्वातपत्रादमृताभिवर्षात्।।
अर्थः
हे ईश्वर! मैं त्रिविध तापों से जर्जरित हो गया हूँ और अत्यंत भयंकर संसार-मार्ग से तपकर निकल रहा हूँ। आपके चरण युगल मेरे लिए छात्र ( छाता ) और अमृत की वृष्टि की तरह है। इन चरण युगलों के सिवा मुझे दूसरा आश्रय स्थान दिखाई नहीं देता।
 
3. दष्टं जनं संपतितं बिलेऽस्मिन्
कालाहिना क्षुद्र-सुखोरु-तर्षम्।
समुद्धरैनं कृपयाऽऽपवर्ग्यैर्
वचोभिरासिंच महानुभाव।।
अर्थः
हे महाप्रभावशाली देव! आपका भक्त इस ( संसार रूप ) गर्त यानी गड्ढे में पड़ा है। कालरूप सर्प ने उसे डस लिया है। फिर भी उसकी क्षुद्र सुख भोगों की तृष्णा नहीं मिटती, बढ़ती ही जा रही है। आप इस ग़ड्ढे से मेरा उद्धार कीजिए और मोक्ष देनेवाले अपने वचनामृत की उस पर वर्षा कीजिए।
 
4. नवैकादश पंच त्रीन् भावान् भूतेषु येन वै।
ईक्षेताथैकमप्येषु तत् ज्ञानं मम निश्चितम्।।
अर्थ:
इस दृश्य जगत् के चराचर भूतों में प्रकृति, पुरुष, महत्व, अहंकार और पंचतंमात्राएँ मिलकर नौ, मन, पाँच ज्ञानेंद्रियाँ और पाँच कर्मेंद्रिया मिलकर ग्यारह; पृथ्वी आदि पाँच महाभूत; सत्व आदि तीन गुण- इस तरह अट्ठाईस भाव यानी तत्व जिस साधना से देखे और समझे जाते हैं और जिससे यह समझ में आता है कि सब भूतों में एक ही वस्तु विराजमान है, वह ‘ज्ञान’ है- ऐसा मेरा निश्चित मत है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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