भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-61

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25. सत्व-संशुद्धि

 
1. सत्वं रजस् तम इति गुणा बुद्धेर न चात्मनः।
सत्वेनान्यतमौ हन्यात् सत्वं सत्वेन चैव हि।।
अर्थः
सत्व, रज और तम- ये तीन बुद्धि के गुण हैं, आत्मा के नहीं। सत्वगुण द्वारा रज और तम इन दोनों को ओर फिर सत्व से (सत्व-गुण की शुद्ध दृष्टि द्वारा) सत्व को भी नष्ट कर देना चाहिए।
 
2. आगमोऽपः प्रजा देशः कालः कर्म च जन्म च।
ध्यानं मंत्रोऽख संस्कारो दशैते गुण-हेतवः।।
अर्थः
शास्त्र, जल, प्रजा, देश, काल, कम, जन्म, ध्यान, मंत्र और संस्कार- ये दस वस्तुएं गुण की कारण हैं। (अर्थात् यदि ये सात्विक हों ता सत्वगुण की, राजस हों तो रजोगुण की और तामस हों तो तमोगुण की वृद्धि होती है।)
 
3. सात्विकान्येव सेवेत पुमान् सत्व-विवृद्धये।
ततो धर्मस् ततो ज्ञानं यावत् स्मृतिरपोहनम्।।
अर्थ:
समझदार मनुष्य सात्विक गुण की वृद्धि के लिए सात्विक वस्तुओं का ही सेवन करें। उससे धर्म का उदय होगा और उसके बाद शीघ्र ही ज्ञान, स्मृति और विवेक प्राप्त होंगे।
 
4. रजस्तमोभ्यां यदपि विद्वान् विक्षिप्त-धीः पुनः।
अतंद्रितो मनो युंजन् दोषदृष्टिर् न सज्जते।।
अर्थः
रजोगुण और तमोगुण से बुद्धि चंचल होने पर भी विवेकी पुरुष पुनः सावधानी से मन काबू में रखकर विषयों की ओर दोष-दृष्टि से देखता है। इसलिए वह उनमें आसक्त नहीं होता


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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