भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-70

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29. भक्ति सारामृत

 
5. नरेष्वभीक्ष्णं मद्भावं पुंसो भावयतोऽचिरात्।
स्पर्धाऽसूयातिर स्काराः साहंकारा दियन्ति हि।।
अर्थः
जो पुरुष सभी स्त्री-पुरुषों में निरंतर मेरी ही भावना करता है, उसके स्पर्धा, मत्सर, तिरस्कार आदि दुष्ट विकार, अहंकार तक, कुछ ही काल में नष्ट हो जाते हैं।
 
6. विसृज्य स्मयमानान् स्वान् दृशं व्रीड़ा च दैहिकीम्।
प्रणमेद् दंडवद् भूमौ आश्वचांडालगोखरम्।।
अर्थः
स्वजन हँसी करें तो करने दें, देहविषयक दृष्टि और उनसे उत्पन्न लाज छोड़ दें और कुत्ते, चांडाल, गाय, गधा आदि सबको साष्टांग प्रणाम करें।
 
7. यावत् सर्वेषु भूतेषु मद्भावों नोपजायते।
तावदेवं उपासीत वाङ्मनः काय-वृत्तिभिः।।
अर्थः
जब तक सब प्राणियों में ‘मेरी ईश्वर-रूप ही है’ ऐसी भावना न हो जाए, तब तक मेरी भक्त काया, वाचा और मन से मेरी उपासना करे।
 
8. अयं हि सर्वकल्पानां सघ्रीचीनो मतो मम।
मद्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्काय-वृत्तिभिः।।
अर्थः
मेरी प्राप्ति के सब उपायों में श्रेष्ठ उपाय मैं यही समझता हूँ कि काय, वाचा और मन को सब वृत्तियों से सब प्राणियों में मेरी भावना की जाए।
 
9. ऐषा बुद्धिमतां बुद्धिर् मनीषा च मनीषिणाम्।
यत् सत्यं अनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम्।।
अर्थः
इस लोक में इस विनाशी असत् शरीर द्वारा मुझ अविनाशी, सत्य तत्व को प्राप्त करने में ही विवेकियों के विवेक और चतुरों की चतुराई की पराकाष्ठा है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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