भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-73

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31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण

 
6. आच्छिद्य कीर्तिं सुश्लोकां वितत्य ह्यांजसा नु कौ।
तमोऽनया तरिष्यन्तीत्यगात् स्वं पदमीश्वरः।।
अर्थः
इस प्रकार बड़े-बड़े कवियों द्वारा सुंदर काव्यों के रूप में वर्णनीय कीर्ति उन्होंने सारे भूमंडल पर सहज फैलायी और ( अपने गमन के बाद, उस कीर्ति का गान, श्रवण व स्मरण कर ) लोग इस अज्ञानरूप अंधकार से पार हो जाएं, यह विचार कर वे अपने धाम को चले गए।
 
7. यो वा अनंतस्य गुणान् अनंतान्
अनुक्रमिष्यन् स तु बालबुद्धिः।
रजांसि भूमेर् गणयेत् कथंचित्
कालेन नैवाखिलशक्तिधाम्नः।।
अर्थः
अनंत रूप भगवान् के गुण भी अनंत हैं। जो उनकी गणना करने की सोचेगा, उसे मूर्ख ही कहना पड़ेगा। बहुत समय लगाकर, दीर्घ प्रयत्न के बाद शायद, पृथ्वी के रजःकणों का गिनना भी संभव हो जाए, लेकिन सर्व-शक्तियों के आश्रय स्थान परमेश्वर के गुणों की गणना कभी भी संभव नहीं।
 
8. यत्काय ऐष भुवनत्रयसंनिवेशः
यस्येंद्रियैस् तनुभृतां उभयेंद्रियाणि।
ज्ञानं स्वतः श्वसनतो बलमोज ईहा
सत्वादिभिः स्थितिलयोद्भव आदिकर्ता।।
अर्थः
भगवान् का यह शरीर त्रिभुवन का आकार है। उनकी इंद्रियों की प्रेरणा से ही सभी देहधारियों की दोनों इंद्रियाँ (ज्ञानेंद्रियाँ और कर्मेंद्रियाँ ) अपना-अपना व्यवहार करती हैं। स्वयं उनसे प्राणियों को ज्ञान और श्वासोच्छ्वास से शरीर का बल, इंद्रियों की तेजस्विता तथा कर्मशक्ति या प्रेरणा प्राप्त होती है। वे सत्व, रज, तम- इन तीन गुणों से इस ब्रह्मांड की उत्पत्ति, स्थिति और लय के आदिकर्ता नारायण हैं, ऐसा जानो।
 
9. यदेतदानंदसमुद्र संभृतं
ज्ञानामृतं भागवताय भाषितम्।
कृष्णेन योगेश्वर सेवितांघ्रिणा
सच्छृद्धयाऽऽसेव्य जगद् विमुच्यते।।
अर्थः
बड़े-बड़े योगी जिनके चरणों की सेवा करते हैं, उन भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने परम भक्त उद्धव को आनंद महासागर से भरा यह ज्ञानामृत पिलाया। इसका
उत्कृष्ट श्रद्धा के साथ सेवन करने पर संसार मुक्त हो जाता है।
 
10. भवभयमपहन्तुं ज्ञान-विज्ञान-सारं
निगमकृदुपजह्रे भृंगवद् वेदसारम्।
अमृतमुदधितश्चापाययद् भृत्यवर्गान्
पुरुषमृषभमाद्यं कृष्णसंज्ञं नतोऽस्मि।।
अर्थः
भ्रमर अनेक पुष्पों से मधु-संग्रह करता है। इसी तरह स्वयं वेदों को प्रकाशित करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण ने भक्तों को संसार-भय से मुक्त करने के लिए वेदों का यह ज्ञान-विज्ञानरूप सार, मानो दूसरा अमृत ही समुद्र से निकालकर अपने भक्तों को पीने के लिए दिया। जगत् के मूल कारण उन पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण को मैं नमस्कार करता हूँ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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