भारतीय दर्शन
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भारतीय दर्शन
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 6 |
पृष्ठ संख्या | 11-16 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | फूलदेवसहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1966 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख संपादक | रामानंद तिवारी |
भारतीय दर्शन भारतीय दर्शन का आरंभ वेदों से होता है। 'वेद' भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति, साहित्य आदि सभी के मूल स्त्रोत हैं। अनेक दर्शन-संप्रदाय वेदों को अपना आधार और प्रमाण मानते हैं। प्राचीन काल में इतने विशाल और समृद्ध साहित्य के विकास में हजारों वर्ष लगे होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं। उपलब्ध वैदिक साहित्य संपूर्ण वैदिक साहित्य का एक छोटा सा अंश है। वैदिक साहित्य का विकास चार चरणों में हुआ है। ये संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् हैं।
भारतीय दर्शन का वैदिक स्त्रोत
भारतीय दर्शन का आरंभ वेदों से होता है। 'वेद' भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति, साहित्य आदि सभी के मूल स्त्रोत हैं। आज भी धार्मिक और सांस्कृतिक कृत्यों के अवसर पर वेद-मंत्रों का गायन होता है। अनेक दर्शन-संप्रदाय वेदों को अपना आधार और प्रमाण मानते हैं। आधुनिक अर्थ में वेदों को हम दर्शन के ग्रंथ नहीं कह सकते। वे प्राचीन भारतवासियों के संगीतमय काव्य के संकलन है। उनमें उस समय के भारतीय जीवन के अनेक विषयों का समावेश है। वेदों के इन गीतों में अनेक प्रकार के दार्शनिक विचार भी मिलते हैं। चिंतन के इन्हीं बीजों से उत्तरकालीन दर्शनों की वनराजियाँ विकसित हुई हैं। अधिकांश भारतीय दर्शन वेदों को अपना आदिस्त्रोत मानते हैं। ये 'आस्तिक दर्शन' कहलाते हैं। प्रसिद्ध षड्दर्शन इन्हीं के अंतर्गत हैं। जो दर्शनसंप्रदाय अपने को वैदिक परंपरा से स्वतंत्र मानते हैं वे भी कुछ सीमा तक वैदिक विचारधाराओं से प्रभावित हैं।
रचनाकाल
वेदों का रचनाकाल बहुत विवादग्रस्त है। प्राय: पश्चिमी विद्वानों ने ऋग्वेद का रचनाकाल १५०० ई.पू. से लेकर २५०० ई.पू. तक माना है। इसके विपरीत भारतीय विद्वान् ज्योतिष आदि के प्रमाणों द्वारा ऋग्वेद का समय ३००० ई.पू. से लेकर ७५००० वर्ष ई.पू. तक मानते हैं। इतिहास की विदित गतियों के आधार पर इन प्राचीन रचनाओं के समय का अनुमान करना कठिन है। प्राचीन काल में इतने विशाल और समृद्ध साहित्य के विकास में हजारों वर्ष लगे होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं। उपलब्ध वैदिक साहित्य संपूर्ण वैदिक साहित्य का एक छोटा सा अंश है। प्राचीन युग में रचित समस्त साहित्य संकलित भी नहीं हो सका होगा और संकलित साहित्य का बहुत सा भाग आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया होगा। वास्तविक वैदिक साहित्य का विस्तार इतना अधिक था कि उसके रचनाकाल की कल्पना करना कठिन है। निस्संदेह वह बहुत प्राचीन रहा होगा। वेदों के संबंध में यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि कुरान और बाइबिल की भाँति 'वेद' किसी एक ग्रंथ का नाम नहीं है और न वे किसी एक मनुष्य की रचनाएँ हैं। 'वेद' एक संपूर्ण साहित्य है जिसकी विशाल परंपरा है और जिसमें अनेक ग्रंथ सम्मिलित हैं। धार्मिक परंपरा में वेदों को नित्य, अपौरुषेय और ईश्वरीय माना जाता है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से हम उन्हें ऋषियों की रचना मान सकते हैं। वेदमंत्रों के रचनेवाले ऋषि अनेक हैं।
वैदिक साहित्य
वैदिक साहित्य का विकास चार चरणों में हुआ है। ये संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् कहलाते हैं। मंत्रों और स्तुतियों के संग्रह को 'संहिता' कहते हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद मंत्रों की संहिताएँ ही हैं। इनकी भी अनेक शाखाएँ हैं। इन संहिताओं के मंत्र यज्ञ के अवसर पर देवताओं की स्तुति के लिए गाए जाते थे। आज भी धार्मिक और सांस्कृतिक कृत्यों के अवसर पर इनका गायन होता है। इन वेदमंत्रों में इंद्र, अग्नि, वरुण, सूर्य, सोम, उषा आदि देवताओं की संगीतमय स्तुतियाँ सुरक्षित हैं। यज्ञ और देवोपासना ही वैदिक धर्म का मूल रूप था। वेदों की भावना उत्तरकालीन दर्शनों के समान संन्यासप्रधन नहीं है। वेदमंत्रों में जीवन के प्रति आस्था तथा जीवन का उल्लास ओतप्रोत है। जगत् की असत्यता का वेदमंत्रों में आभास नहीं है। ऋग्वेद में लौकिक मूल्यों का पर्याप्त मान है। वैदिक ऋषि देवताओं से अन्न, धन, संतान, स्वास्थ्य, दीर्घायु, विजय आदि की अभ्यर्थना करते हैं।
वेदों के मंत्र प्राचीन भारतीयों के संगीतमय लोककाव्य के उत्तम उदाहरण हैं। ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् ग्रंथों में गद्य की प्रधानता है, यद्यपि उनका यह गद्य भी लययुक्त है। ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञों की विधि, उनके प्रयोजन, फल आदि का विवेचन है। आरण्यकग्रंथों में आध्यात्मिकता की ओर झुकाव दिखाई देता है। जैसा कि इस नाम से ही विदित होता है, ये वानप्रस्थों के उपयोग के ग्रंथ हैं। उपनिषदों में आध्यात्मिक चिंतन की प्रधानता है। चारों वेदों की मंत्रसंहिताओं के ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् अलग अलग मिलते हैं। शतपथ, तांडय आदि ब्राह्मण प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण हैं। ऐतरेय, तैत्तिरीय आदि के नाम से आरण्यक और उपनिषद् दोनों मिलते हैं। इनके अतिरिक्त ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य आदि प्राचीन उपनिषद् भारतीय चिंतन के आदिस्त्रोत हैं।
उपनिषद
उपनिषदों का दर्शन आध्यात्मिक है। ब्रह्म की साधना ही उपनिषदों का मुख्य लक्ष्य है। ब्रह्म को आत्मा भी कहते हैं। 'आत्मा' विषयजगत्, शरीर, इंद्रियों, मन, बुद्धि आदि सभी अवगम्य तत्वों स परे एक अनिर्वचनीय और अतींद्रिय तत्व है, जो चित्स्वरूप, अनंत और आनंदमय है। सभी परिच्छेदों से परे होने के कारण वह अनंत है। अपरिच्छन्न और एक होने के कारण आत्मा भेदमूलक जगत् में मनुष्यों के बीच आंतरिक अभेद और अद्वैत का आधार बन सकता है। आत्मा ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है। उसका साक्षात्कार करके मनुष्य मन के समस्त बंधनों से मुक्त हो जाता है। अद्वैतभाव की पूर्णता के लिए आत्मा अथवा ब्रह्म से जड़ जगत् की उत्पत्ति कैसे होती है, इसकी व्याख्या के लिए माया की अनिर्वचनीय शक्ति की कल्पना की गई है। किंतु सृष्टिवाद की अपेक्षा आत्मिक अद्वैतभाव उपनिषदों के वेदांत का अधिक महत्वपूर्ण पक्ष है। यही अद्वैतभाव भारतीय संस्कृति में ओतप्रोत है। दर्शन के क्षेत्र में उपनिषदों का यह ब्रह्मवाद शंकराचार्य, रामानुजाचार्य आदि के उत्तरकालीन वेदांत मतों का आधार बना। वेदों का अंतिम भाग होने के कारण उपनिषदों को 'वेदांत' भी कहते हैं। उपनिषदों का अभिमत ही आगे चलकर वेदांत का सिद्धांत और संप्रदायों का आधार बन गया। उपनिषदों की शैली सरल और गंभीर है। अनुभव के गंभीर तत्व अत्यंत सरल भाषा में उपनिषदों में व्यक्त हुए हैं। उनको समझने के लिए अनुभव का प्रकाश अपेक्षित है। ब्रह्म का अनुभव ही उपनिषदों का लक्ष्य है। वह अपनी साधना से ही प्राप्त होता है। गुरु का संपर्क उसमें अधिक सहायक होता है। तप, आचार आदि साधना की भूमिका बनाते हैं। कर्म आत्मिक अनुभव का साधक नहीं है। कर्म प्रधान वैदिक धर्म से उपनिषदों का यह मतभेद है। संन्यास, वैराग्य, योग, तप, त्याग आदि को उपनिषदों में बहुत महत्व दिया गया है। इनमें श्रमण परंपरा के कठोर संन्यासवाद की प्रेरणा का स्रोत दिखाई देता है। तपोवादी जैन और बौद्ध मत तथा गीता का कर्मयोग उपनिषदों की आध्यात्मिक भूमि में ही अंकुरित हुए हैं।
अवैदिक दर्शनों का विकास
उपनिषदों के अध्यात्मवाद तथा तपोवाद में ही वैदिक कर्मकांड के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया ने एक प्रकट क्रांति का रूप ग्रहण कर लिया। जैन धर्म का आरंभ बौद्ध धर्म से पहले हुआ। महावीर स्वामी के पूर्व २३ जैन तीर्थकर हो चुके थे। महावीर स्वमी ने जैन धर्म का प्रचार किया। बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध उनके समकालीन थे। दोनों का समय ई.पू. छठी शताब्दी माना जाता है। इन्होंने वेदों से स्वतंत्र एक नवीन धार्मिक परंपरा का प्रवर्तन किया। वेदों को न मानने के कारण जैन और बौद्ध दर्शनों को 'नास्तिक दर्शन' भी कहते हैं। इनका मौलिक साहित्य क्रमश: महावीर और बुद्ध के उपदेशों के रूप मे है जो क्रमश: प्राकृत और पालि की लोकभाषाओं में मिलता है तथा जिसका संग्रह इन महापुरुषों के निर्वाण के बाद कई संगीतियों में उनके अनुयायियों के परामर्श के द्वारा हुआ। बुद्ध और महावीर दोनों हिमालय प्रदेश के राजकुमार थे। युवावय में ही संन्यास लेकर उन्होने अपने धर्मो का उपदेश और प्रचार किया। उनका यह सन्यास उपनिषदों की परंपरा से प्रेरित है। जैन और बौद्ध धर्मों में तप और त्याग की महिमा भी उपनिषदों के दशर्न के अनुकूल है। अहिंसा और आचार की महत्ता तथा जातिभेद का खंडन इन धर्मों की विशेषता है। अहिंसा के बीज भी उपनिषदों में विद्यमान हैं। फिर भी अहिंसा की ध्वजा को धर्म के आकाश में फहराने का श्रेय जैन और बौद्ध संप्रदायों को देना होगा।
महावीर स्वामी के उपदेश
महावीर स्वामी के उपदेशों से लेकर जैन धर्म की परंपरा आज तक चल रही है। महावीर स्वामी के उपदेश ४१ सूत्रों में संकलित हैं, जो जैनागमों में मिलते हैं। उमास्वाति का 'तत्वार्थाधिगम सूत्र' (३०० ई.) जैन दर्शन का प्राचीन और प्रामाणिक शास्त्र है। सिद्धसेन दिवाकर (५०० ई.), हरिभद्र (९०० ई.), मेरुतुंग (१४वीं शताब्दी), आदि जैन दर्शन के प्रसिद्ध आचार्य हैं। सिद्धांत की दृष्टि से जैन दर्शन एक ओर अध्यात्मवादी तथा दसरी ओर भौतिकवादी है। वह आत्मा और पुद्गल (भौतिक तत्व) दोनों को मानता है। जैन मत में आत्मा प्रकाश के समान व्यापक और विस्तारशील है। पुनर्जन्म में नवीन शरीर के अनुसार आत्मा का संकोच और विस्तार होता है। स्वरूप से वह चैतन्य स्वरूप और आनंदमय है। वह मन और इंद्रियों के माध्यम के बिना परोक्ष विषयों के ज्ञान में समर्थ है। इस अलौकिक ज्ञान के तीन रूप हैं - अवधिज्ञान, मन:पर्याय और केवलज्ञान। पूर्ण ज्ञान को केवल ज्ञान कहते हैं। यह निर्वाण की अवस्था में प्राप्त हाता है। यह सब प्रकार से वस्तुओं के समस्त धर्मों का ज्ञान है। यही ज्ञान 'प्रमाण' है। किसी अपेक्षा से वस्तु के एक धर्म का ज्ञान 'नय' कहलाता है। 'नय' कई प्रकार के होते हैं। ज्ञान की सापेक्षता जैन दर्शन का सिद्धांत है। यह सापेक्षता मानवीय विचारों में उदारता और सहिष्णुता को संभव बनाती है। सभी विचार और विश्वास आंशिक सत्य के अधिकारी बन जाते हैं। पूर्ण सत्य का आग्रह अनुचित है। वह निर्वाण में ही प्राप्त हो सकता है। निर्वाण अत्मा का कैवल्य है। कर्म के प्रभाव से पुद्गल की गति आत्मा के प्रकाश को आच्छादित करती है। यह 'आस्रव' कहलाता है। यही आत्मा का बंधन है। तप, त्याग, और सदाचार से इस गति का अवरोध 'संवर' तथा संचित कर्मपुद्गल का क्षय 'निर्जरा' कहलाता है। इसका अंत 'निर्वाण' में होता है। निर्वाण में आत्मा का अनंत ज्ञान और अनंत आनंद प्रकाशित होता है।
बुद्ध के उपदेश तीन पिटकों में संकलित हैं। ये सुत्त पिटक, विनय पिटक और अभिधम्म पिटक कहलाते हैं। ये पिटक बौद्ध धर्म के आगम हैं। क्रियाशील सत्य की धारणा बौद्ध मत की मौलिक विशेषता है। उपनिषदों का ब्रह्म अचल और अपरिवर्तनशील है। बुद्ध के अनुसार परिवर्तन ही सत्य है। पश्चिमी दर्शन में हैराक्लाइटस और बर्गसाँ ने भी परिवर्तन को सत्य माना। इस परिवर्तन का कोई अपरिवर्तनीय आधार भी नहीं है। बाह्य और आंतरिक जगत् में कोई ध्रुव सत्य नहीं है। बाह्य पदार्थ 'स्वलक्षणों' के संघात हैं। आत्मा भी मनोभावों और विज्ञानों की धारा है। इस प्रकार बौद्धमत में उपनिषदों के आत्मवाद का खंडन करके 'अनात्मवाद' की स्थापना की गई है। फिर भी बौद्धमत में कर्म और पुनर्जन्म मान्य हैं। आत्मा का न मानने पर भी बौद्धधर्म करुणा से ओतप्रोत हैं। दु:ख से द्रवित होकर ही बुद्ध ने संन्यास लिया और दु:ख के निरोध का उपाय खोजा। अविद्या, तृष्णा आदि में दु:ख का कारण खोजकर उन्होंने इनके उच्छेद को निर्वाण का मार्ग बताया।
अनात्मवादी होने के कारण बौद्ध धर्म का वेदांत से विरोध हुआ। इस विरोध का फल यह हुआ कि बौद्ध धर्म को भारत से निर्वासित होना पड़ा। किंतु एशिया के पूर्वी देशों में उसका प्रचार हुआ। बुद्ध के अनुयायियों में मतभेद के कारण कई संप्रदाय बन गए। जैन संप्रदाय वेदांत के समान ध्यानवादी है। इसका चीन में प्रचार है। सिद्धांतभेद के अनुसार बौद्ध परंपरा में चार दर्शन प्रसिद्ध हैं। इनमें वैभाषिक और सौत्रांतिक मत हीनयान परंपरा में हैं। यह दक्षिणी बौद्धमत हैं। इसका प्रचार भी लंका में है। योगाचार और माध्यमिक मत महायान परंपरा में हैं। यह उत्तरी बौद्धमत है। इन चारों दर्शनों का उदय ईसा की आरंभिक शब्ताब्दियों में हुआ। इसी समय वैदिक परंपरा में षड्दर्शनों का उदय हुआ। इस प्रकार भारतीय पंरपरा में दर्शन संप्रदायों का आविर्भाव लगभग एक ही साथ हुआ है तथा उनका विकास परस्पर विरोध के द्वारा हुआ है। पश्चिमी दर्शनों की भाँति ये दर्शन पूर्वापर क्रम में उदित नहीं हुए हैं।
बाह्यानुमेयवाद
वसुबंधु (४०० ई.), कुमारलात (२०० ई.) मैत्रेय (३०० ई.) और नागार्जुन (२०० ई.) इन दर्शनों के प्रमुख आचार्य थे। वैभाषिक मत बाह्य वस्तुओं की सत्ता तथा स्वलक्षणों के रूप में उनका प्रत्यक्ष मानता है। अत: उसे बाह्य प्रत्यक्षवाद अथवा 'सर्वास्तित्ववाद' कहते हैं। सैत्रांतिक मत के अनुसार पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं, अनुमान होता है। अत: उसे बाह्यानुमेयवाद कहते हैं। योगाचार मत के अनुसार बाह्य पदार्थों की सत्ता नहीं। हमे जो कुछ दिखाई देता है वह विज्ञान मात्र है। योगाचार मत विज्ञानवाद कहलाता है। माध्यमिक मत के अनुसार विज्ञान भी सत्य नहीं है। सब कुछ शून्य है। शून्य का अर्थ निरस्वभाव, नि:स्वरूप अथवा अनिर्वचनीय है। शून्यवाद का यह शून्य वेदांत के ब्रह्म के बहुत निकट आ जाता है।
वेदविरोधी होने के कारण नास्तिक संप्रदायों में चार्वाक मत का भी नाम लिया जाता है। भौतिकवादी होने के कारण यह आदर न पा सका। इसका इतिहास और साहित्य भी उपलब्ध नहीं है। 'बृहस्पति सूत्र' के नाम से एक चार्वाक ग्रंथ के उद्धरण अन्य दर्शन ग्रंथों में मिलते हैं। चार्वाक मत एक प्रकार का यथार्थवाद और भौतिकवाद है। इसके अनुसार एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। अनुमान और आगम संदिग्ध होते हैं। प्रत्यक्ष पर आश्रित भौतिक जगत् ही सत्य है। आत्मा, ईश्वर, स्वर्ग आदि सब कल्पित हैं। भूतों के संयोग से देह में चेतना उत्पन्न होती है। देह के साथ मरण में उसका अंत हो जाता है। आत्मा नित्य नहीं है। उसका पुनर्जन्म नहीं होता। जीवनकाल में यथासंभव सुख की साधना करना ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए।
वैदिक दर्शन परंपरा
उपनिषत्काल में एक ओर बौद्ध और जैन धर्मों की अवैदिक परंपराओं का आविर्भाव हुआ तथा दूसरी ओर वैदिक दर्शनों का उदय हुआ। ईसा के जन्म के पूर्व और बाद की एक दो शताब्दियों में अनेक दर्शनों की समानांतर धाराएँ भारतीय विचारभूमि पर प्रवाहित होने लगीं। बौद्ध और जैन दर्शनों की धाराएँ भी इनमें सम्मिलित हैं। वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन अधिक प्रसिद्ध हैं। गीतादर्शन भी इनका समकालीन है। गीता का कर्मयोग उपनिषदों के ब्रह्मवाद के बाद एक महत्वपूर्ण मौलिक दर्शन है। सभी वैदिक दर्शनों ने कर्मयोग का महत्व स्वीकार किया है। व्यावहारिक होने के कारण उसे प्रतिनिधि भारतीय जीवनदर्शन कहा जा सकता है। गीता के कर्मयोग में अध्यात्म और जीवन का अद्भुद समन्वय हुआ है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह वैदिक कर्मकांड और उपनिषदों के ब्रह्मवाद का समन्वय है। अध्यात्म और कर्म का यह समन्वय अत्यंत महत्वपूर्ण है। उपनिषदों के वेदांत तथा बौद्ध और जैन धर्म के संन्यासवाद के प्रभाव स भारतीय जनता में विरक्ति और निवृत्ति का प्रभाव इतना बढ़ रहा था कि समाज के लिए घातक बन जाता। ऐसी स्थिति में गीता ने कर्मयोग का संदेश देकर देश को एक संजीवन मंत्र प्रदान किया। अध्यात्म को स्वीकार कर गीता ने सन्यास को एक नई परिभाषा दी। 'सन्यास' का सामान्य अर्थ 'त्याग' है। किंतु इस त्याग में प्राय: भ्रांति हो जाती है। भोजन, शयन आदि प्राकृतिक कर्मों का त्याग किया जा सकता है। काम्य कर्मों का भी त्याग संभव है। यही गीता का संन्यास है। फल की कामना त्याग कर लोक संभव है। यही गीता का सन्यास है। फल की कामना त्याग कर लोक संग्रह के लिए निष्काम कर्म करना जीवन का आदर्श है। यही मोक्ष का साधन है। गीता का यह निष्काम कर्मयोग अधिकांश भारतीय दर्शनों ने अपनाया है। ज्ञानयोग उसका आध्यात्मिक आधार है और भक्तियोग उसका भावात्मक दर्शन है।
गीता कर्मयोग
गीता के कर्मयोग के अतिरिक्त वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन प्रसिद्ध हैं। ये सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत के नाम से विदित है। इनके प्रणेता कपिल, पतंजलि, गौतम, कणाद, जैमिनि के बादरायण थे। ईसा के जन्म के आसपास इन दर्शनों का उदय माना जाता है। इनके आरंभिक संकेत उपनिषदों में भी मिलते हैं। प्रत्येक दर्शन का आधारग्रंथ एक दर्शनसूत्र है। 'सूत्र' भारतीय दर्शन की एक अद्भुत शैली है। गिने चुने शब्दों में सिद्धांत के सार का संकेत सूत्रों में रहता है। संक्षिप्त होने के कारण सूत्रों पर विस्तृत भाष्य और अनेक टीकाओं की रचना हुई। भारतीय दर्शन की यह शैली स्वतंत्र दर्शनग्रंथों की पश्चिमी शैली से भिन्न है। गुरु-शिष्य-परंपरा के अनुकूल दर्शन की शिक्षा और रचना इसका आधार है। यह परंपरा षड्दर्शनों के बाद नवीन दर्शनों के उदय में बाधक रही। व्याख्याओं के प्रसंग में कुछ नवीनता और मतभेद के कारण मुख्य दर्शनों में उपभेद अवश्य पैदा हो गए। प्रमाणविचार, सृष्टिमीमांसा और मोक्षसाधना षड्दर्शनों के सामान्य विषय हैं। ये छ: दर्शन किसी न किसी रूप में आत्मा को मानते हैं। आत्मा की प्राप्ति ही मोक्ष है। पुनर्जन्म, आचार, योग आदि को भी ये मानते हैं। न्याय, योग आदि कुछ दर्शन ईश्वर में विश्वास करते हैं। सांख्य और मीमांसा दर्शन निरीश्वरवादी हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द ये चार प्रमाण सामान्यत: सभी दर्शनों को मान्य हैं। मीमांसा मत में अर्थापत्ति और अनुपलब्धि ये दो प्रमाण और माने जाते हैं।
उपनिषन्मूलक होने के कारण इनमें वेदांतदर्शन सबसे अधिक प्राचीन है। किंतु ब्रह्मसूत्र में अन्य दर्शनों का खंडन है तथा उसका प्राचीनतम भाष्य शंकराचार्य का है (८ वीं शताब्दी)। अन्य दर्शन सूत्रों के भाष्य ईसा की आरंभिक शताब्दियों में रचे गए। सांख्य सूत्र संभवत: लुप्त हो गया। ईश्वरकृष्ण (५वीं शताब्दी) की 'सांख्यकारिका' सांख्य दर्शन का प्रामाणिक ग्रंथ है। सांख्य दर्शन निरीश्वरवादी द्वैतवाद है। इसके अनुसार प्रकृति और पुरुष दो स्वतंत्र और सनातन सत्ताएँ हैं। 'प्रकृति' जड़ है और जगत् का सूक्ष्म कारण् है। वह सत्व, रजस्, और तमस् इन तीन गुणों की साम्यावस्था का नाम प्रकृति है। प्रकृति के साथ पुरुष का संपर्क होने से सर्ग का आरंभ होता है। सर्ग पुरुष का बंधन है। तत्वज्ञान से मोक्ष होता है। अपने शुद्ध चेतन कर्तृत्व भोक्तृत्व रहित स्वरूप के ज्ञान से पुरुष मुक्त होता है।
योग दर्शन
योग दर्शन के सिद्धांत सांख्य के समान हैं। योगसूत्र पर रचित भाष्य और टीकाएँ योगदर्शन की विस्तृत परंपरा का आधार हैं। योगदर्शन का मुख्य लक्ष्य समाधि के मार्ग को प्रशस्त करना है। समाधि में चित्त की समस्त वृत्तियों का निरोध हो जाता है। अभ्यास, वैराग्य और ध्यान योग के मुख्य साधन हैं। ईश्वर को भी ध्यान का लक्ष्य बनाया जा सकता है इतना ही योगदर्शन में ईश्वर का महत्व है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के आठ अंगों से युक्त अष्टांगयोग योग का सर्वजन सुलभ मार्ग है।
न्याय-वैशेषिक प्रमाणप्रधान दर्शन हैं। न्याय एक प्रकार का भारतीय तर्कशास्त्र है। न्यायसूत्र पर अनेक प्रसिद्ध टीकाएँ हैं। गंगेश उपाध्याय (१२वीं शताब्दी) की 'तत्वचिंतामणि' से नवद्वीप में नव्य न्याय की परंपरा का आरंभ हुआ। न्यायदर्शन के पहले ही सूत्र में १६ पदार्थों का उल्लेख है। इनके द्वारा तत्वज्ञान होता है जो नि:श्रेयस अथवा मोक्ष का साधन है। प्रमाणों को विशेष विस्तार न्यायदर्शन में मिलता है। ईश्वरभक्ति को न्याय में मोक्ष का साधन माना गया है। वैशेषिक दर्शन एक प्रकार से न्याय का समान तंत्र है। विशेष अथवा परमाणु उसका मुख्य विषय है। परमाणु सृष्टि का मूल उपादान कारण है। ईश्वर को न्याय-वैशेषिक-दशर्न सृष्टि का निमित्त कारण मानते हैं। वैशेषिक दर्शन में संपूर्ण सत्ता को सात पदार्थों में विभाजित किया गया है - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव। न्याय के १६ पदार्थों की अपेक्षा अधिक संगत होने के कारण यही विभाजन आगे चलकर अधिक मान्य हुआ तथा न्याय-वैशेषिक-दर्शन की उस संयुक्त परंपरा का आधार बना जिसका प्रतिनिधित्व 'न्यायमुक्तावली' आदि अर्वाचीन ग्रंथ करते हैं।
मीमांसा
षड्दर्शनों में अंतिम दो दर्शनों को 'मीमांसा' कहा जाता है। ये पूर्वमींमांसा और उत्तरमीमांसा कहलाती हैं। अन्य दर्शनों की अपेक्षा इनका वेदों से अधिक घनिष्ठ संबंध है। एक प्रकार से ये वैदिक दर्शन की व्याख्याएँ हैं। पूर्वमीमांसा, मंत्रसंहिता और ब्राह्मणों के कर्मकांड की व्याख्या है। उत्तरमीमांसा उपनिषदों के अध्यात्मदर्शन का तार्किक विवेचन है। वेदों का अंतिम भाग होने के कारण उपनिषदों को 'वेदांत' कहते हैं। उत्तर मीमांसा का नाम भी 'वेदांत' है। इन दोनों मीमांसाओं के सिद्धांतों का आधार वेदों में है, किंतु व्यवस्थित दर्शनों के रूप में इनका आरंभ अन्य दर्शनों के साथ साथ ही ईसा के जन्म के आसपास हुआ। इसीलिए इनकी गणना षड्दर्शनों में की जाती है। दोनों मीमांसाओं के इतिहास के तीन चरण हैं। तीनों ही चरणों में इनका विकास एक ही पूर्वोत्तर क्रम में हुआ। वैदिक युग में वेदों के पूर्वभाग (संहिता, ब्राह्मण) में कर्मकांड का विधान हुआ। वेदों के उत्तर भाग (उपनिषदों) में अध्यात्म की प्रतिष्ठा हुई। ईसा की आरंभिक शताब्दी में जैमिनि और बादरायण के 'मीमांसासूत्र' तथा 'ब्रह्मसूत्र' भी संभवत: इसी क्रम में रचे गए। ईसा की सातवीं शताब्दी में कुमारिल भट्ट और शंकराचार्य ने इसी पूर्वापर क्रम में पूर्व और उत्तरमीमांसाओं का उद्धार एवं प्रचार किया।
अनात्मवादी होने के कारण बौद्धदर्शन का आत्मवादी वैदिक दर्शन से विरोध है। वैदिक धर्म के विरुद्ध क्रांति के रूप में ही ईसवी पूर्व छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म का उदय हुआ था। अनेक कारणों से ईसा की छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म का ्ह्रास होने लगा। उसी समय कुमारिल और शंकराचार्य ने वैदिक धर्म के दोनों पक्षों की प्रतिष्ठा की। इनके बाद पार्थसारथि मिश्र (१४वीं शताब्दी) तथा माधवचार्य (१४वीं शताब्दी) न पूर्वमीमांसा दर्शन का विस्तार किया। माधवाचार्य विजयनगर के राजा वुक्का के मंत्री थे। बाद में संन्यास लेकर विद्यारण्य के नाम से श्रृंगेरी पीठ के शंकराचार्य पद पर आसीन हुए और 'पंचदशी' नामक प्रद्धि वेदांत ग्रंथ की रचना की। वेदांतमत की प्रतिष्ठा के लिए शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों पर जिन चार पीठों की स्थापना की उनमें श्रृंगेरी पीठ दक्षिण में नीलगिरि पर्वत पर स्थित है। अन्य तीन पीठ पुरी, बदरिकाश्रम और द्वारका में हैं। शंकराचार्य ने उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र और गीता पर भाष्यों की रचना की। शंकराचार्य के बाद वाचस्पति मिश्र (९वीं शताब्दी), श्री हर्ष (१२वं शताब्दी) आदि आचार्यों ने वेदांत परंपरा का विस्तार किया।
पूर्वमीमांसा
पूर्वमीमांसा का मुख्य लक्ष्य वैदिक कर्मकांड की व्यवस्था करना है। इसके अनुसार वेदमंत्रों का मुख्य अर्थ विधि अथवा कर्म के आदेश में है। जिन मंत्रों में विधिवाचक क्रिया नहं है वे 'अर्थवाद' हैं तथा देवताओं आदि की प्ररोचना करते हैं। यदि यज्ञादि कर्म से एक दिव्य शक्ति उत्पन्न होती है जिसे 'अपूर्व' कहते हैं। यही अपूर्व कर्मफल का नियामक है। पूर्वमीमांसा में ईश्वर मान्य नहीं है। वेद नित्य और अपौरुषेय हैं। नित्य शब्द का कल्प कल्प में यथापूर्व स्फोट होता है और अपूर्व की शक्ति से यथापूर्व सृष्टि की उत्पत्ति होती है। पूर्वमीमांसा की आत्मा वैशेषिक के समान चेतनातीत है। न्याय दर्शन के चर प्रमाणों के अतिरिक्त अर्थापत्ति और अनुपलब्धि दो प्रमाण और मीमांसा दर्शन में माने जाते हैं।
उत्तर मीमांसा
उत्तर मीमांसा वेदों के उत्तर भाग (उपनिषदों) पर आश्रित है। उपनिषद् वेदों के अंतिम भाग हैं, अत: वे वेदांत कहलाते हैं। उत्तर मीमांसा का अधिक प्रसिद्ध नाम 'वेदांत' ही है। ब्रह्मसूत्र और उपनिषदों की व्याख्याओं के द्वारा वेदांत का विस्तार हुआ है। अनेक आचार्यों ने भिन्न भिन्न दृष्टिकोण से ब्रह्मसूत्रों और उपनिषदों की व्याख्या की है। आचार्यों के विभिन्न मतों के आधार पर वेदांत के अनेक संप्रदाय बन गए। ये अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत आदि के नाम से प्रसिद्ध हैं। वेदांत के ये संप्रदाय सांख्य आदि की भाँति दार्शनिक नहीं हैं; इन सभी संप्रदायों के धार्मिक पीठ देश के विभिन्न स्थानों में प्रतिष्ठित हैं। इन पीठों की आचार्य-परंपरा आज तक अक्षुण्ण चली आ रही है।
वेदांत के इन अनेक संप्रदायों में शंकराचार्य का अद्वैतमत सबसे प्राचीन है। यह संभवत: सबसे अधिक प्रतिष्ठित भी है। शंकराचार्य का अद्वैतवाद उपनिषदों पर आश्रित है। उनके अनुसार ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है। जगत् का विक्षेप और जीव के ब्रह्मभाव का आवरण करती है। अज्ञान का निवारण होने पर जीव को अपने ब्रह्मभाव का साक्षात्कार होता है। यही मोक्ष है। ब्रह्म सच्चिदानंद है। ब्रह्म की सत्ता और चेतना तथा उसका आनंद अनंत है। जागृत, स्वप्न और सुषुप्त की अवस्थाओं से परे तथा बाह्य और आंतरिक विषयों से अतीत अनुभव में ब्रह्म का प्रकाश होता है। विषयातीत होने के कारण ब्रह्म अनिर्वचनीय है। संख्यातीत होने के कारण उसे 'अद्वैत' कहा जाता है। त्याग और प्रेम के व्यवहारों में यह अद्वैत भाव विभासित होता है। समाधि में इसका आंतरिक साक्षात्कार होता है। अद्वैत भाव को सिद्ध करने के लिए ब्रह्म को जगत् का कारण माना गया है। ब्रह्म को जगत् का उपादान कारण मानकर दोनों का अद्वैत सिद्ध हो जाता है। उपादान के परिणाम की आशंका को विवर्तवाद के द्वारा दूर किया गया है। विवर्तकारण अविकार्य होता है। उसका कार्य मिथ्या होता है जैसे रज्जु में सर्प का भ्रम। रज्जु सर्प और स्वप्न प्रातिभासिक सत्य हैं। जगत् व्यावहारिक सत्य है। मोक्ष पर्यंत वह मान्य है। ब्रह्म ही पारमार्थिक सत्य है जो मोक्ष में शेष रह जाता है। माया से युक्त ब्रह्म 'ईश्वर' कहलाता है। वह सृष्टि का कर्ता है किंतु वह पारमार्थिक सत्य नहीं है। ब्रह्मानुभव का साधन ज्ञान है। कर्म के साध्य शाश्वत नहीं होते। 'ब्रह्म' कर्म के द्वारा साध्य नहीं है। कर्म और भक्ति मोक्ष के सहकारी कारण हैं। श्रवण, मनन और निदिध्यासन मोक्षसाधना के तीन चरण हैं। मोक्ष में आत्मा समस्त बंधनों से मुक्त हो जाती है और अनंत आनंद से आप्लावित रहती है। यह मोक्ष जीवनकाल में प्राप्य है तथा जीवन के व्यवहार से इसकी पूर्ण संगति है।
श्रीसंप्रदाय
शंकराचार्य के लगभग ३०० वर्ष बाद ११वीं शताब्दी में रामानुजाचार्य ने ब्रह्मसूत्रों की नवीन व्याख्या के आधार पर विशिष्टाद्वैत मत की स्थापना की। रामानुजकृत 'श्रीभाष्य' के आधार पर यह श्रीसंप्रदाय कहलाता है। रामानुज शंकर के मायावाद को नहीं मानते। उनके अनुसार जीव, जगत् और ब्रह्म तीनों पारमार्थिक सत्य हैं। जगत् ब्रह्म का विवर्त नहीं वरन् ब्रह्म की वास्तविक रचना है। ब्रह्म और ईश्वर एक दूसरे के पर्याय हैं। जीव ब्रह्म का अंश है। मोक्ष में जगत् का विलय नहीं होता और जीव का स्वतंत्र अस्तित्व बना रहता है। ब्रह्म निर्विशेष और निर्गुण नहीं वरन् सविशेष्य और सगुण है। ब्रह्म ही स्वतंत्र सत्ता है। जीव और जगत् उसके अपृथक्सिद्ध विशेषण हैं। ब्रह्म से पृथक् उनका अस्तित्व संभव नहीं है। अत: रामानुज का मत भी अद्वैत ही है। जीव और जगत् के विशेषणों से युक्त ब्रह्म का इनके सथ विशिष्ट अद्वैतभाव है। ब्रह्म इनका अंतर्यामी स्वामी है। रामानुज के मत में भक्ति मोक्ष का मुख्य साधन है। भगवान् के गुणों का ज्ञान भक्ति का प्रेरक है। साधारण जन और शूद्रों के लिए प्रपत्ति अर्थात् शरणागति सर्वोत्तम मार्ग हैं।
वेदांत-पारिजात-सौरभ
रामानुज के कुछ वर्ष बाद ११वीं शताब्दी में ही निंबार्काचार्य ने द्वैतार्द्वत मत की प्रतिष्ठा की। ब्रह्मसूत्रों पर 'वेदांत-पारिजात-सौरभ' नाम से उनका भाष्य इस मत का आधार है। रामानुज के समान निंबार्क भी जीव और जगत् को सत्य तथा ब्रह्म का आश्रित मानते हैं। रामानुज के मत में अद्वैत प्रधान है। निंबार्क मत में द्वैत का अनुरोध अधिक है। रामानुज के अनुसार जीव और ब्रह्म में स्वरूपगत साम्य है, उनकी शक्ति में भेद हैं। निंबार्क के मत में उनमें स्वरूपगत भेद है। निंबार्क के अद्वैत का आधार जीव की ब्रह्म पर निर्भरता है। निंबार्क का ब्रह्म सगुण ईश्वर है। कृष्ण के रूप में उसकी भक्ति ही मोक्ष का परम मार्ग है। यह भक्ति भगवान् के अनुग्रह से प्राप्त होती है। भक्ति से भगवान् का साक्षात्कार होता है। यही मोक्ष है। रामानुज और निंबार्क दोनो के मत में विदेह मुक्ति ही मान्य है।
निंबार्क के बाद १३वीं शताब्दी में मध्वाचार्य ने द्वैत मत का प्रतिपादन किया। वे पूर्णप्रज्ञ तथा आनंदतीर्थ के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। उन्होंने शंकराचार्य के अद्वैत और निंबार्क के द्वैताद्वैत का खंडन करके द्वैतवाद की स्थापना की है। उनके अनुसार भेद और अभेद दोनों की एकत्र स्थति संभव नहीं है। शंकराचार्य का मायावाद भी उन्हें मान्य नहीं है। जगत् मिथ्या नहीं यथार्थ है। सत् और असत् से भिन्न माया की तीसरी अनिर्वचनीय कोटि संभव नहीं है। ईश्वर, जीव और जगत् तीनों एक दूसरे से भिन्न हैं। भेद के पाँच प्रकार हैं। ईश्वरजीव, ईश्वर-जगत्, जीव-जगत्, जीव-जीव और जड़ पदार्थों में परस्पर भेद है। ईश्वर जगत् का उपादान कारण नहीं, निमित्त कारण है। उपादान करण प्रकृति है। ईश्वर उसका नियामक है। ईश्वर की भक्ति के द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है। मुक्त जीवों में परस्पर भेद रहता है। वे ईश्वर से भिन्न रहकर अपनी सामर्थ्य के अनुसार ईश्वर की विभूति में भाग लेते हैं।
१५वीं शताब्दी में वल्लभाचार्य ने शुद्धाद्वैत मत का प्रचार किया। इस मत का आधार 'ब्रह्मसूत्रों' पर लिखित वल्लभाचार्य का 'अणुभाष्य' है। वे माया से अलिप्त शुद्ध ब्रह्म का अद्वैत भाव मानते हैं। यह ब्रह्म निर्गुण नहीं, सगुण है तथा माया के संबंध से रहित है। ब्रह्म अपनी अनंत शक्ति से जगतृ के रूप में व्यक्त होता है। चित् और आनंद का तिरोधान होने के कारण जगत् में केवल सत् रूप से ब्रह्म की अभिव्यक्ति होती है। जीव और ब्रह्म स्वरूप से एक हैं। अग्नि के स्फुर्लिगों की भांति जीव ब्रह्म का अंश है, विशेषण नहीं। इस प्रकार सर्वत्र अद्वैत है, कहीं भी द्वैत नहीं। मर्यादा और पुष्टि दो प्रकार की भक्ति मोक्ष का साधन हैं।
१६वीं शताब्दी में चैतन्य महाप्रभु ने 'अचिंत्य भेदाभेद' का प्रवर्तन किया। उनके शिष्य रूप गोस्वामी ने गौडीय वैष्णव संप्रदाय का प्रतिष्ठापन किया। इनके अनुसार भगवान् की शक्ति अचिंत्य है। वह विरोधी गुणों का समन्वय कर सकती है। भेदाभेद का चिंतन न करके मोक्ष की साधना करना ही जीवन का धर्म है। मोक्ष का अर्थ भगवान् की प्रीति का निरंतर अनुभव है।
इस प्रकार वैदिक युग के उत्तरकाल में उपनिषदों में जिस वेदांत का उदय हुआ उसका नवीन उत्थान सातवीं शताब्दी से लेकर १६वीं शताब्दी तक अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत, शुद्धाद्वैत आदि संप्रदायों के रूप में हुआ। उपनिषदों का वेदांत पश्चिमी और उत्तरीय भारत की देन है। अद्वैत आदि संप्रदायों का उदय दक्षिण से हुआ। इनके प्रवर्तक दक्षिण देशों के निवासी थे। चैतन्य का मत बंगाल से उदित हुआ। किंतु इन सभी संप्रदायों ने वृदांवन आदि उत्तरी स्थानों में अपने पीठ बनाए। शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों पर पीठ स्थापित किए। उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम सभी प्रदेशों के लोग इन संप्रदायों में सम्मिलित हुए। सिद्धांत में भिन्न होते हुए भी वेदांत के ये विभिन्न संप्रदाय भारतवर्ष की आंतरिक एकता के सूत्र बने।
शैव और शाक्त संप्रदाय
वैदिक और अवैदिक दर्शनों के अतिरिक्त भारतीय दर्शन परंपरा में एक तीसरी धारा शैव तथा शाक्त संप्रदायों की प्रवाहित होती रही है। कुछ रहस्यमय साधना के रूप में होने के कारण यह वैदिक और अवैदिक धाराओं के संगम में कुछ सरस्वती के समान गुप्त रही है। किंतु प्रत्यक्ष उपासना के रूप में भी शिव की मान्यता बहुत है। प्राचीन ऐतिहासिक खोजों से शिव की प्राचीनता प्रमाणित होती है। गाँव गाँव में शिव के मंदिर हैं। प्रति सप्ताह और प्रति पक्ष में शिव का ्व्रात होता है। महादेव पार्वती का दिव्य दांपत्य भारतीय परिवारों में आदर्श के रूप से पूजित होता है। ऋग्वेद और यजुर्वेद के रुद्र के रूप में शिव का वर्णन है। किंतु प्राय: शिव को अवैदिक लोकदेवता माना जाता है। दक्ष के यज्ञघ्वंस के प्रसंग के द्वारा शिव की अवैदिकता का समर्थन किया जाता है पौराणिक युग में भी त्रिदेवों की तुलना के प्रसंग में विरोध के आभास मिलते हैं। किंतु आगे चलकर शिव एक अत्यंत लोकप्रिय देवता बन गए। शैव संप्रदाय प्राय: गुप्त तंत्रों के रूप में रहे हैं। उनका बहुत कम साहित्य प्रकाशित है। प्रकाशित साहित्य भी प्रतीकात्मक होने के कारण दुरूह है। शैव परंपरा के अनेक संप्रदाय हैं। इनमें शैव, पाशुपत, वीरशैव, कालामुख, कापालिक, काश्मीर शैव मत तथा दक्षिणी मत अधिक प्रसिद्ध हैं। इन्हें शैव परंपरा के षड्दर्शन कह सकते हैं। शैव सिद्धात का प्रचार दक्षिण में तमिल देश में है। इसका आधार आगम ग्रंथों में है। १४वीं शताब्दी में नीलकंठ ने 'ब्रह्मसूत्रों' पर शैवभाष्य की रचना कर वेदांत परंपरा के साथ शैवमत का समन्वय किया। पाशुपत मत नकुलीश पाशुपत के नाम से प्रसिद्ध है। पाशुपत सूत्र इस संप्रदाय का मूल ग्रंथ है। कालामुख और कापालिक संप्रदाय कुछ भयंकर और रहस्यमय रहे हैं। काश्मीर शैव मत अद्वैत वेदांत के समान है। तांत्रिक होते हुए भी इनका दार्शनिक साहित्य विपुल है। इसकी स्पंद और प्रत्यभिज्ञा दो शाखाएँ हैं। एक का आधार वसुगुप्त की स्पंदकारिका और दूसरी का आधार उनके शिष्य सोमानंद (९वीं शती) का 'प्रत्यभिज्ञाशास्त्र' है। जीव और परमेश्वर का अद्वैत दोनों शाखाओं में मान्य है। परमेश्वर 'शिव' वेदांत के ब्रह्म के ही समान हैं। वीरशैव मत दक्षिण देशों से प्रचलित है। इनके अनुयायी शिवलिंग धारण करते हैं। अत: इन्हें 'लिंगायत' भी कहते हैं। १२वीं शताब्दी में वसव ने इस मत का प्रचार किया। वीरशैव मत एक प्रकार का विशिष्टाद्वैत है। शक्ति विशिष्ट विश्व को परम तत्व मानने के कारण इसे शक्ति विशिष्टाद्वैत कह सकते हैं। उत्तर और दक्षिण में प्रचलित शैव संप्रदाय भी उत्तर वेदांत संप्रदायों की भाँति भारत की धार्मिक एकता के सूत्र हैं। कैलास से रामेश्वरम् तक पूजित शिव भारतीय एकता के मंगल देवता है। दोनों की यात्राओं के द्वारा भारतीय एकता का व्यावहारिक अनुष्ठान होता है। शक्तिपूजा का स्त्रोत संभवत: प्राचीन भारत के मातृतंत्र में है। भारतीय परिवारों में देवी की महिमा बहुत है। स्त्रियों के नाम में प्राय: उत्तरपद के रूप में 'देवी' शब्द का प्रयोग होता है। शक्ति के अनेक रूप हैं। लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती काली, आदि के रूप में देवी की उपासना होती है। 'शक्ति' इच्छारूप है। शिवसूत्र में इच्छाशक्ति को उमा कुमारी का रूप दिया है (इच्छा शक्ति: उमा कुमारी)। पर तत्व के चिन्मय रूप में इच्छाशक्ति का समन्वय शक्ति दर्शन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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