महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-25

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पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

उमा-महेश्वर-संवाद कितने ही महत्वपूर्ण विषयों का विवेचन

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-25 का हिन्दी अनुवाद

ऊपरबताये हुए कारणों से मनुष्य अल्पायु होते हैं, अन्यथा चिरजीवी होते हैं। यह सारा विषय मैंने तुम्हें बता दिया। अब और क्या सुनना चाहती हो? उमा ने पूछा- देवदेव! महादेव! भगवन्! यह विषय तो मैंने अच्छी तरह सुन लिया। अब यह बताइये कि आत्मा का स्त्री या पुरूष में किस जाति के साथ सम्बन्ध है?जीवात्मा स्त्रीरूप है या पुरूषरूप? एक है या अलग-अलग? देव! यह मेरा संशय है। आप इसका निवारण करें। श्रीमहेश्वर ने कहा- जीवात्मा सदा ही निर्विकार है! वह न स्त्री है न पुरूष। वह कर्म के अनुसार विभिन्न जातियों में जन्म लेताहै। पुरूषोचित कर्म करके स्त्री भी पुरूष हो सकती है और स्त्री-भावना से युक्त पुरूष तदनुरूप कर्म करके उस कर्म के अनुसार स्त्री हो सकता है।। उमा ने पूछा- भगवन्! सर्वलोकेश्वर! यदि आत्मा कर्म नहीं करता तो शरीर में दूसरा कौन कर्म करने वाला है? यह मुझे बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- भामिनि! कर्ता कौन है? यह सुनो। आत्मा कर्म नहीं करता है। प्रकृति के गुणों से युक्त प्राणी द्वारा ही सदा कर्म किया जाता है। जगत् में प्राणियों का शरीर जैसे वात, पित्त और कफ- इन तीन दोषों से व्याप्त रहता है, इसी प्रकार प्राणी सत्व, रज और तम- इन गुणों से व्याप्त होता है। सत्व, रज और तम- ये तीनों शरीरधारी के गुण हैं। इनमें से सत्व सदा प्रकाशस्वरूप माना गया है। रजोगुण दुःखरूप और तमोगुण मोहरूप बताया गया है। लोक में इन तीनों गुणों से युक्त कर्म की प्रवृत्ति होती है। सत्यभाषण, प्राणियों पर दया, शौच, श्रेय, प्रीति, क्षमा और इन्द्रिय-संयम- ये तथा ऐसे ही अन्य कर्म भी सात्विक कहलाते हैं।। दक्षता, कर्मपरायणता, लोभ, विधि के प्रति मोह, स्त्री-संग, माधुर्य तथा सदा ऐश्वर्य का लोभ-ये नाना प्रकार के भाव और कर्म रजोगुण से प्रकट होते हैं। असत्यभाषण, रूखापन, अत्यन्त अधीरता, हिंसा, असत्य, नास्तिकता, निद्रा, आलस्य और भय- ये तथा पापयुक्त कर्म तमोगुण से प्रकट होते हैं। इसलिये समस्त शुभाशुभ कार्यारम्भ गुणमय है, अतः आत्मा को व्यग्रतारहित, अकर्ता और अविनाशी समझो। सात्विक मनुष्य पुण्यलोकों में जाते हैं। राजस जीव मनुष्यलोक में स्थित होते हैं तथा तमोगुणी मनुष्य पशु-पक्षियों की योनि में और नरक में स्थित होते हैं। उमा ने पूछा- इस शरीर के भेदन से अथवा शस्त्र द्वारा मारे जाने से आत्मा स्वयं ही क्यों चला जाता है? यह मुझे बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- कल्याणि! इसका कारण मैं बताता हूँ, सुनो। इस विषय में सूक्ष्म बुद्धिवाले विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं। जन्मधारी प्राणियों के कर्मों का क्षय हो जाने पर इस देह में जिस किसी भी कारण से उपद्रव होने लगता है। उसके कारण शरीरका कक्षय हो जाने पर देहाभिमानी जीव कर्म के अधीन हो उस शरीर को त्याग कर चला जाता है। शरीर क्षीण होता है, आत्मा नहीं। वह वेदनाओं से भी विचलित नहीं होता। जब तक कर्मफल शेष रहता है, तब तक जीवात्मा इस शरीर में स्थित रहता है और कर्मों का क्षय होने पर पुनः चला जाता है। आदिकाल से ही इस जगत् में आत्मा की ऐसी ही गति मानी गयी है। देवि! यह सब विषय तुम्हें बताया गया। अब और क्या सुनना चाहती हो?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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