महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-24

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पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

उमा-महेश्वर-संवाद कितने ही महत्वपूर्ण विषयों का विवेचन

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-24 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! इस विषय में जो यथार्थ बात है, वह मैं तुम्हें बता रहा हूँ। कर्मों का भोग समाप्त होने पर आत्मा इस शरीर को कैसे छोड़ता है? यह एकाग्रचित्त होकर सुनो। शरीर और आत्मा का (जड़ और चेतन का) जो संयोग है, उसी को जीव या प्राणी कहते हैं। इनमें आत्मा को नित्य और शरीर को अनित्य बताया जाता है। जब काल से आक्रान्त होकर शरीर जरावस्था से जर्जर हो जाता है, कोई कर्म करने योग्य नहीं रह जाता और सर्वथा गल जाता है, तब देहधारी जीव उसे त्यागकर चल देता है। नित्य जीवात्मा जब अनित्य शरीर को त्याग कर चला जाता है, तब लोक में उस प्राणी की मृत्यु हुई मानी जाती है। देवता, असुर और मनुष्य कोई भी काल का उल्लंघन नहीं कर सकते। जैसे आकाश में कोई भी जड द्रव्य स्थिर नहीं रह सकता, उसी प्रकार यह काल निरन्तर दौड़ लगाता रहता है। एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता।। वह जीव फिर किसी दूसरे शरीर में प्रवेश करके अन्यत्र जन्म लेता है। इस प्रकार आदि काल से ही लोक की सदा ऐसी ही गति चल रही है। उमा ने पूछा- भगवन्! इस संसार में बाल्यावस्था में भी प्राणियों की मृत्यु होती देखी जाती है और अत्यन्त वृद्ध मनुष्य भी चिरजीवी होकर जीवित दिखायी देते हैं। महेश्वर! केवल काल-मृत्यु अर्थात् वृद्धावस्था में ही मृत्यु होने की बात प्रमाणभूत नहीं रह गयी है, अतः प्राणियों के जीवन के लिये उठे हुए मेरे इस संदेह का आप निवारण कीजिये। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! इसका कारण सुनो। इस विषय में एक ही निर्णय है। जब तक पूर्वकृत कर्म (प्रारब्ध) शेष है, तब तक मनुष्य जीवित रहता है। उसी कर्म के अधीन होकर प्रारब्ध भोग का काल समाप्त होने पर बालक भी मर जाते हैं और उसी कर्म की मात्रा के अनुसार वृद्ध पुरूष भी दीर्घकाल तक जीवित रहते हैं। देवि! यह सब विषय तुम्हें बताया गया। प्रिये इस विषय में अब तुम संशयरहित हो जाओ। उमा ने पूछा- भगवन्! किस आचरण से मनुष्य चिरजीवी होते हैं और किससे अल्पायु हो जाते हैं? यह मुझे बताने की कृपा करें। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! यह सारा गूढ़ रहस्य मनुष्यों के लिये परम लाभदायक है। जिस आचरण से सम्पन्न मनुष्य चिरजीवी होते हैं, वह सब सुनो। अहिंसा, सत्यभाषण, क्रोध का त्याग, क्षमा, सरलता, गुरूजनों की नित्य सेवा, बड़े-बूढ़ों का पूजन, पवित्रता का ध्यान रखकर न करने योग्य कर्मों का त्याग, सदा ही पथ्य भोजन इत्यादि गुणों वाला आचार दीर्घजीवी मनुष्यों का है। तपस्या, ब्रह्मचर्य तथा रसायन के सेवन से मनुष्य अधिक धैर्यशाली, बलवान् और चिरजीवी होते हैं। धर्मात्मा पुरूष स्वर्ग में हो या मनुष्यलोक में, वे दीर्घकाल तक अपने पद पर बने रहते हैं। इनके सिवा दूसरे जो पापकर्मी प्रायः झूठ बोलने वाले, हिंसापे्रमी, गुरूद्रोही, अकर्मण्य, शौचाचार से रहित, नास्तिक, घोरकर्मी, सदा मांस खाने और मद्य पीने वाले, पापाचारी, गुरू से द्वेष रख्ने वाले, क्रोधी और कलहप्रेमी हैं, ऐसे असदाचारी पुरूष चिरकाल तक नरक में पड़े रहते हैं तथा तिर्यग्योनि में स्थित होते हैं, वे मनुष्य-शरीर में अत्यन्त अल्प समय तक ही रहते हैं। इसीलिये ऐसे मनुष्य अल्पायु होते हैं। अगम्य स्थानों में जाने से, अपथ्य वस्तुओं का भोजन करने से मनुष्यों की आयु क्षीण होती है, क्योंकि वे आयु का नाश करने वाले हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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