महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 84 श्लोक 33-65
चतुरशीतितमो (84) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
यद्यपि अश्वमेध यज्ञ समस्त प्राणियों को पवित्र करने वाला तथा तेज और कांति को बढ़ाने बाला है। तथापि उसके फल से तेजस्वी परशुराम जी सवर्था पापमुक्त न हो सके। इससे उन्होंने अपनी लघुता का अनुभव किया। प्रचुर दक्षिणा से सम्पन्न उस श्रेष्ठ यज्ञ का अनुष्ठान पूर्ण करके महामना भृगुवंशी परशुराम जी ने मन में दया भाव लेकर शास्त्रज्ञ ऋषि और देवताओं से इस प्रकार पूछा- ‘महाभाग महात्माओं । उग्रकर्म में लगे हुए मनुष्यों के लिये जो परम पावन वस्तु हो वह मुझे बताइये।' उनके इस प्रकार पूछने पर उन वेद-शास्त्रों के ज्ञाता महर्षियों ने इस प्रकार कहा-‘परशुराम । तुम वेदों की प्रमाणिकता पर दृष्टि रखते हुए ब्राह्माणों का सत्कार करो ओर ब्रह्मर्षियों के समुदाय से पुनः इस पावन वस्तु के लिये प्रश्न करो।' ‘और वे महाज्ञानी महर्षिगण जो कुछ बतावें, उसी का प्रसन्नतापूर्वक पालन करो।’ तब महातेजस्वी भृगुनन्दन परशुराम जी ने वसिष्ठ, नारद, अगस्त्य और कश्यपजी के पास जाकर पूछा- विप्रवरों ! मैं पवित्र होना चाहता हूं। बताइये, कैसे किस कर्म के अनुष्ठान से अथवा किस दान से पवित्र हो सकता हूं।‘साधुशिरोमणे ! तपोधनो ! यदि आप लोग मुझ पर अनुग्रह करना चाहते हों तो बतायें, मुझे पवित्र करने वाला साधन क्या है?’ ऋषियों ने कहा- भृगुनन्दन ! हमने सुना है कि पाप करने वाला मनुष्य यहां गाय, भूमि और धन का दान करके पवित्र हो जाता है। व्रम्हर्षे ! एक दूसरी वस्तु का दान भी सुनो। वह वस्तु सबसे बढ़कर पावन है। उसका आकार अत्यन्त अदभुत और दिव्य है तथा वह अग्नि से उत्पन्न हुई है। उस वस्तु का नाम है सुवर्ण। हमने सुना है कि पूर्वकाल में अग्नि ने सम्पूर्ण लोकों को भस्म करके अपने वीर्य से सुवर्ण को प्रकट किया था। उसी का दान करने से तुम्हें सिद्धि प्राप्त होगी । तदनन्तर कठोर व्रत का पालन करने वाले भगवान वसिष्ठ ने कहा- ‘परशुराम ! अग्नि के समान प्रकाशित होने वाला सुवर्ण जिस प्रकार प्रकट हुआ है, वह सुनो।।‘सुवर्ण का दान तुम्हें उत्तम फल देगा क्योंकि वह दान के लिये सर्वोत्तम बताया जाता है। महाबाहो ! सुवर्ण का जो स्वरूप है, जिससे उत्पन्न हुआ है और जिस प्रकार वह विशेष गुणकारी है, वह सब बता रहा हूं, मुझसे सुनो। ‘यह सुवर्ण अग्नि और सौम रूप है। इस बात को तुम निश्चित रूप से जान लो। बकरा, अग्नि, भेड़, वरुण तथा घोड़ा सूर्य का अंश है। ऐसी दृष्टि रखनी चाहिये।‘भृगुनन्दन। हाथी और मृग नागों के अंश हैं। भैंसे असुरों के अंश हैं। मुर्गा और सूअर राक्षसों के अंश हैं ।इडा- गौ, दुग्ध और सोम- ये सब भूमिरूप ही हैं। ऐसी स्मृति है।‘सारे जगत का मन्थन करके जो तेज की राशि प्रकट हुई है, वही सुवर्ण है। अतः व्रम्हर्षे। यह अज आदि सभी वस्तुओं से परम उत्तम रत्न है। ‘इसलिये देवता, गन्धर्व, नाग, राक्षस, मनुष्य और पिशाच- ये सब प्रयत्नपूर्वक सुवर्ण धारण करते हैं।।‘भृगुश्रेष्ठ। वे सोने के बने हुए मुकुट, बाजूबंद तथा अन्य नाना प्रकार के अलंकारों से सुशोभित होते हैं। 'अतः नरश्रेष्ठ ! जगत में भूमि, रत्न तथा गौ आदि जितनी पवित्र वस्तुऐं है, सुवर्ण को उन सबसे पवित्र माना गया है; इस बात को भलिभांति जान लो।' ‘ विभो ! पृथ्वी, गौ तथा और जो कुछ भी दान किया जाता है, उन सबसे बढ़करण का दान है।' ‘देवपम ! तेजस्वी ! परशुराम ! सुवर्ण अक्षय और पावन है, अतः तुम श्रेष्ठ ब्राह्माणों को यह उत्तम और पावन वस्तु ही दान करो। सब दक्षिणाओं में सुवर्ण का ही विधान है; अतः जो सुवर्ण दान करते हैं, वे सबकुछ दान करने वाले होते हैं। ‘जो सुवर्ण देते हैं, वे देवताओं का दान करते हैं; क्योंकि अग्नि सर्वदेवतामय है और सुवर्ण अग्नि का स्वरूप है। ‘पुरुषसिंह ! अतः सुवर्ण का दान करने वाले पुरुषों ने सम्पूर्ण देवताओं का ही दान कर दिया- ऐसा माना जाता है। अतः विद्वान पुरुष ! सुवर्ण बढ़्कर दूसरा कोई दान नहीं मानते हैं। सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ विप्रर्षे ! मैं पुनः सुवर्ण का महात्म्य बता रहा हूं, ध्यान देकर सुनो। ‘भृगुनन्दन ! मैंने पहले पुराण में प्रजापति की कही हुई यह न्यायोचित बात सुन रखी है। ‘भृगुकुलरत्न ! भृगुनन्दन ! परशुराम ! यह बात उस समय की है जब श्रेष्ठ पर्वत हिमालय पर शूलपाणी महात्मा भगवान रूद्र का देवी रूद्राणी के साथ विवाह संस्कार सम्पन्न हुआ और महामना भगवान शिव को उमादेवी के साथ समागम सुख प्राप्त था।‘ उस समय सब देवता उद्विग्न होकर कैलासशिखर पर बैठे हुए महान देवता रूद्र और वरदायिनी देवी उमा के पास गये। भृगुश्रेष्ठ। वहां उन सबने उन दोनों के चरणों में मस्तक झुकाकर उन्हें प्रसन्न करके भगवान रूद्र से कहा- पाप रहित महादेव ! यह जो देवी पार्वती के साथ आपका समागम हुआ है, यह एक तपस्वी का तपस्विनी के साथ और एक महातेजस्वी का एक तेजस्विनी के साथ संयोग हुआ है । ‘देव ! प्रभो ! आपका तेज अमोघ है। ये देवी उमा भी ऐसी ही अमोघ तेजस्विनी है। आप दोनों की जो संतान होगी वह अत्यन्त प्रबल होगी। निश्चय ही वह तीनों लोकों में किसी को शेष नहीं रहने देगी।‘विशाल लोचन। लोकेश्वर। हम सब देवता आपके चरणों में पड़े हैं। आप तीनों लोकों की हित की इच्छा से हमें वर दीजिये।'
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