महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 86 श्लोक 1-35
षडशीतितमो (86) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
- कार्तिकेय की उत्पत्त्िा, पालन-पोषण और उनका देवसेनापति- पद पर अभिषेक, उनके द्वारा तारकासुर का वध ।
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह ! सुवर्ण का विधिपूर्वक दान करने से जो वेदोक्त फल प्राप्त होते हैं यहां उनका आपने विस्तारपूर्वक वर्णन किया। सुवर्ण की उत्पत्ति का जो कारण है, वह भी आपने बताया। अब मुझे यह बताइये की वह तारकासुर कैसे मारा गया ? पृथ्वीनाथ ! आपने पहले कहा है कि वह देवताओं के लिये अवध्य था, फिर उसकी मृत्यु कैसे हुई? यह विस्तारपूर्वक बताइये । कुरुकुल का भार वहन करने वाले पितामह ! मैं आपके मुख से यह तारक वध का सम्पूर्ण वृतांत सुनना चाहता हूं। इसके लिये मेरे मन में बड़ा कौतुहल है। भीष्मजी ने कहा- राजेन्द्र ! जब गंगाजी ने अग्नि द्वारा स्थापित किये हुए उस गर्भ को त्याग दिया, तब देवताओं और ऋषियों का बना-बनाया काम बिगड़ने की स्थिति में आ गया। उस दशा में उन्होंने उस गर्भ के भरण-पोषण के लिये छहों कृत्तिकाओं को प्रेरित किया । कारण यह था कि देवांगनाओं में दूसरी कोई स्त्री अग्नि एवं रूद्र के उस तेज का भरण-पोषण करने में समर्थ नहीं थी और ये कृत्तिकाऐं अपनी शक्ति से उस गर्भ को भलिभांति धारण-पोषण कर सकती थीं। अपने तेज के स्थापन और उत्तम वीर्य के ग्रहण द्वारा गर्भ धारण करने के कारण अग्निदेव उन छहों कृत्तिकाओं पर बहुत प्रसन्न हुए। प्रभो ! उन छहों कृत्तिकाओं ने अग्नि के उस गर्भ का पोषण किया। अग्नि का वह सारा तेज छह मार्गों से उनके भीतर स्थापित हो चुका था । गर्भ में जब वह महामना कुमार बढ़ने लगा तब उसके तेज से उनका सारा अंग व्याप्त होने कारण वे कृत्तिकाऐं कहीं चैन नहीं पाती थीं । नरश्रेष्ठ !तदनन्तर तेज से व्याप्त अंग वाली उन समस्त कृत्तिकाओं ने प्रसव काल उपस्थित होने पर एक साथ ही उस गर्भ को उत्पन्न किया । छह अधिष्ठानों में पला हुआ वह गर्भ जब उत्पन्न होकर एकत्व को प्राप्त हो गया, तब सुवर्ण के समीप स्थित हुए उस बालक को पृथ्वी ने ग्रहण किया।। कांतिमान शिशु अग्नि के समान प्रकाशित हो रहा था। उसके शरीर की आकृति दिव्य थी। वह दिव्य सरकण्डे के वन में जन्म ग्रहण करके दिनों-दिन बढ़ने लगा। कृत्तिकाओं ने देखा वह बालक अपनी कांति से सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा है। इससे उनके हृदय में स्नेह उमड़ आया और वे सौहार्दवश अपने स्तनों का दूध पिलाकर उसका पोषण करने लगी ।इसी से चराचण प्राणियों सहित त्रिलोकी में वह कार्तिकेय के नाम से प्रसिद्व हुआ। स्कन्धन (स्खलन) के कारण वह ‘स्कन्ध’ कहलाया और गुहा में वास करने से ‘गुह’ नाम से विख्यात हुआ। तदनन्तर तैंतीस देवता दसों दिशाऐं, दिक्पाल, रूद्र, धाता, विष्णु, यम, पूषा, अर्यमा, भग, अंश, मित्र, साध्य, वसु, वासव (इन्द्र), अश्विनीकुमार, जल (वरुण), वायु, आकाश, चन्द्रमा, नक्षत्र, ग्रहगण, रवि तथा दूसरे-दूसरे विभिन्न प्राणी जो देवताओं के आश्रित थे, सब-के-सब उस अद्भुत अग्निपुत्र ‘कुमार’ को देखने के लिये वहां आये।।ऋषियों ने स्तुति की और गन्दर्वों ने उनका यश गाया। ब्राह्माणों के प्रेमी उस कुमार छह मुख, बारह नेत्र, बारह भुजाऐं, मोटे कंधे और अग्नि तथा सूर्य के समान कांति थी। वे सरकण्डों के झुण्ड झुरमुट में सो रहे थे। उन्हें देखकर ऋषियों सहित देवताओं को बड़ा हर्ष प्राप्त हुआ और यह विश्वास हो गया कि अब तारकासुर मारा जायेगा। तदनन्तर सब देवता उन्हें उनकी प्रिय वस्तुऐं भेंट करने लगे।पक्षियों ने खेल-कूद में लगे हुए कुमार को खिलोने दिये, गरूड़ ने विचित्र पंखों से सुशोभित अपना पुत्र मयूर भेंट किया। राक्षसों ने सूअर और भेंसा- ये दो पशु उन्हें उपहार रूप में दिये। गरूड़ के भाई अरुण ने अग्नि के समान लाल वर्ण वाला एक मुर्गा भेंट किया । चन्द्रमा ने भेड़ दी, सूर्य ने मनोहर कांति प्रदान की, गोमाता सुरभि देवी ने एक लाख गौऐं प्रदान कीं। अग्नि ने गुणवान बकरा, इला ने बहुत से फल-फूल, सुधन्वा ने छकड़ा और विशाल कूबर से युक्त रथ दिये।। वरुण ने वरुणलोक के अनेक सुन्दर एवं दिव्य हाथी दिये। देवराज इन्द्र ने सिंह, व्याघ्र, हाथी, अन्यान्य पक्षी, बहुत से भयानक हिंसक जीव तथा नाना प्रकार के क्षत्र भेंट किये । राक्षसों और असुरों का समुदाय उन शक्तिशाली कुमार के अनुगामी हो गये। उन्हें बड़ा देख तारकासुर ने युद्व के लिये ललकारा, परंतु अनेक उपाय करके भी वह उन प्रभावशाली कुमार को मारने में सफल न हो सका। देवताओं ने गुहावासी कुमार की पूजा करके उनका सेनापति के पद पर अभिषेक किया और तारकासुर ने देवताओं पर जो अत्याचार किया था, सो कह सुनाया।।महापराक्रमी देव सेनापति प्रभु गुह ने वृद्वि को प्राप्त होकर अपनी अमोघ शक्ति से तारकासुर का वध कर डाला । खेल-खेल में ही उन अग्निकुमार के द्वारा जब तारकासुर मार डाला गया, तब ऐश्वर्यशाली देवेन्द्र पुनः देवाताओं के राज्य पर प्रतिष्ठित किये गये । प्रतापी स्कन्द सेनापति के ही पद पर रहकर बड़ी शोभा पाने लगे। वे देवताओं के ईश्वर तथा संरक्षक थे और भगवान शंकर का सदा ही हित किया करते थे। ये अग्निपुत्र भगवान स्कन्द सुवर्णमय विग्रह धारण करते हैं। वे नित्य कुमारावस्था में ही रहकर देवताओं के सेनापति पद पर प्रतिष्ठित हुए हैं । सुवर्ण कार्तिकेयजी के साथ ही उत्पन्न हुआ है और अग्नि का उत्कृष्ट तेज माना गया है। इसलिये वह मंगलमय, अक्षय एवं उत्तम रत्न है। कुरुनन्दन ! नरेश्वर ! इस प्रकार पूर्वकाल में वसिष्ठजी ने परशुराम को यह सारा प्रसंग एवं सुवर्ण की उत्पत्ति और माहत्म्य सुनाया था। अतः तुम स्वर्णदान के लिये प्रयत्न करो। परशुराम जी सुवर्ण का दान करके सब पापों से मुक्त हो गये और स्वर्ग में उस महान स्थान को प्राप्त हुए जो दूसरे मनुष्यों के लिये सर्वथा दुर्लभ है।
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