महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 101 श्लोक 1-14

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एकाधिकशततम (101) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: एकाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
ब्राह्माणों के धन का अपहरण करने से प्राप्‍त होने वाले दोष के विषय में क्षत्रीय और चाण्‍डाल का सवाद तथा ब्रह्मस्‍व की रक्षा में प्राणोत्‍सर्ग करने से चाण्‍डाल को मोक्ष की प्राप्ति

युधिष्ठिर ने पूछा- भरतश्रेष्ठ। जो मूर्ख और मन्दबुद्वि मानव क्रूरतापूर्ण कर्म में संलग्न रहकर ब्राह्माण के धन का अपहरण करते हैं, वे किस लोक में जाते हैं? भीष्मजी ने कहा- राजन। ब्राह्माण के धन का बलपूर्वक अपहरण- यह सबसे बड़ा पातक है। ब्राह्माण का धन लूटने वाले चाण्डाल- स्वभावयुक्त मनुष्य अपने कुल-परिवार सहित नष्ट हो जाते हैं । भारत। इस विषय में जानकर मनुष्य एक चाण्डाल और क्षत्रिय बन्धु का संवाद विषयक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं । क्षत्रियों ने पूछा- चाण्डाल। तू बूढ़ा हो गया है तो बालकों जैसी चेष्टा करता है। कुत्तों और गधों की धूलि का सेवन करने वाला होकर भी तू इन गौओं की धूलि से क्यों इतना उदिग्न हो रहा है । चाण्डाल के लिये विहित कर्म की श्रेष्ठ पुरूष निंदा करते हैं। तू गोधूलि से ध्वस्त हुए अपने शरीर को क्यों जल कुण्ड में डालकर धो रहा है? चाण्डाल ने कहा- राजन। पहले की बात है- एक ब्राह्माण की कुछ गौओं का अपहरण किया गया था। जिस समय वे गौऐं हरकर ले जायी जा रही थीं, उस समय उनकी दुग्धकण मिश्रित चरण धूलि ने सोमरस पर पड़कर उसे दूषित कर दिया। उस सोमरस को जिन ब्राह्माण ने पिया, वे तथा उसे यज्ञ की दीक्षा लेने वाले राजा भी शीघ्र ही नरक में जा गिरे। उन यज्ञ कराने वाले समस्त ब्राह्माण सहित राजा ब्राह्माण के अपहृत धन का उपयोग करके नरकगामी हुए । जहां वे गौऐं हरकर लायी गयी थीं वहां जिन मनुष्यों ने उनके दूध, दही और घी का उपभोग किया वे सभी ब्राह्माण और क्षत्रिय आदि नरक में पड़े । अपने अपहृत हुई गौऐं जब दूसरे पशुओं को देखती और अपने स्वामी तथा बछड़ों को नहीं देखती थी, तब पीड़ा से अपने शरीर को कंपाने लगती थीं। उन दिनों सद्भाव से ही दूध देकर उन्होंने अपहरणकारी पति-पत्नि को तथा उनके पुत्रों और पौत्रों को भी नष्ट कर दिया । राजन। मैं भी उसी गांव में ब्रह्मचर्य पालन पूर्वक जितेन्द्रिय भाव से निवास करता था। नरेश्‍वर। एक दिन उन्हीं गौओं के दूध एवं धूल के कण से मेरा भिक्षान्न भी दूषित हो गया । महाराज। उस भिक्षान्न को खाकर मैं चाण्डाल हो गया और ब्राह्माण के धन का अपहरण करने वाले वे राजा भी नरकगामी हो गये । इसलिये कभी किंचिनमात्र भी ब्राह्माण के धन का अपहरण न करें। ब्राह्माण के धूल-धूसरित दुग्धरूप धन को खाकर मेरी जो दशा हुई है, उसे आप प्रत्यक्ष देख लें। । इसलिये विद्वान पुरूष को सोमरस का विक्रय भी नहीं करना चाहिये। मनीषी पुरूष इस जगत में सोमरस के विक्रय की बड़ी निंदा करते हैं । तात। जो लोग सोमरस को खरीदते हैं और जो लोग उसे बेचते हैं, वे सभी यमलोक में जाकर रौरव नरक में पड़ते हैं । वेदवेत्ता ब्राह्माण यदि गौओं के चरणों की धूलि और से दूषित सोम को विधि पूर्वक वेचता है अथवा व्याज पर रूपये चलाता है तो वह जल्दी ही नष्ट हो जाता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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