महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 104 श्लोक 17-36
चतुरधिकशततम (104) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
इसी प्रकार सांयकाल में भी मौन रहकर संध्योपासना करे। उदय और अस्त के समय सूर्य की ओर कदापि न देखे । ग्रहण और मध्याह्न के समय भी सूर्य की ओर दृष्टिपात न करे तथा जल में स्थित सूर्य के प्रतिबिम्ब की ओर भी न देखे। ॠषियों ने प्रतिदिन संध्योपासन करने से दी दीर्घ आयु प्राप्त की थी। इसलिये सदा मौन रहकर द्विजमात्र प्रात:काल और सांयकाल की संध्या अवश्य करनी चाहिये । जो द्विज न तो प्रातकाल की संख्या करते है और न सांयकाल की ही, उन सबको धार्मिक राजा शूद्रोचित कर्म करावे । किसी भी वर्ण के पुरुष को कभी भी परायी स्त्रियों से संसर्ग नहीं करना चाहिये। परस्त्री-सेवन से मनुष्य की आयु जल्दी ही समाप्त हो जाती है। संसार में परस्त्री समागम के समान दूसरा कोई कार्य नहीं है । स्त्रियों के शरीर में जितने रोमरुप होते हैं, उतने ही हजार वर्षों तक व्यभिचारी पुरुषों को नरक में रहना पड़ता है । केशों का संवारना, आंखों में अंजन लगाना, दांत-मुंह धोना और देवताओं की पूजा करना- ये सब कार्य दिन के पहले प्रहर में ही करने चाहिये । मल-मू्त्र की ओर न देखे, उस पर कभी पैर न रखे। अत्यन्त सबेरे, अधिक सांझ हो जाने पर और ठीक दोपहर के समय की बाहर न जाय। न तो अपरिचित पुरुषों के साथ यात्रा करे, न शूद्रों के साथ और न अकेला ही । ब्राह्माण, गाय, राजा, वृद्व पुरुष, गर्भिणी स्त्री, दुर्बल और भारपीड़ित मनुष्य यदि सामने आते हो तो स्वयं किनारे हटकर उन्हें जाने का मार्ग देना चाहिये । मार्ग में चलते समय अश्वत्थ आदि परिचित वृक्षों तथा समस्त चौराहों को दाहिने करके जाना चाहिये। दोपहर में, रात में, विशेषत: आधी रात के समय और दोनो संध्या के समय कभी चौराहों पर न रहे।। दूसरों के पहने हुए वस्त्र और जूते न पहने। सदा ब्रह्मचर्य का पालन करे। पैर से पैर को न दबावे। सभी पक्षों की अमावस्या, पौर्णमासी,चर्तुदशी और अष्टमी तिथि को सदा ब्रह्मचारी रहे- स्त्री समागम न करे। किसी की निंदा, बदनाम और चुगली न करे । दूसरों के मर्म पर आघात न करे। क्रूरतापूर्ण बात न बोले, औरों को नीचा न दिखावे। जिसके कहने से दूसरों के उद्वेग होता हो वह रुखाई से भरी हुई बात पापियों के लोक में ले जान वाली होती है। अत: वैसी बात कभी बोले । वचनरुपी बाण मुंह से निकलते हैं, जिनसे आहत होकर मनुष्य रात-दिन शोक में पड़ा रहता है। अत: जो दूसरों के मर्मस्थानों पर चोट करते हैं, ऐसे वचन विद्वान पुरुष दूसरों के प्रति कभी न कहे । बाणों से बिंधा और फरसे से कटा हुआ वन पुन: अंकुरित हो जाता है, किंतु दुर्वचनरुपी शस्त्र से किया हुआ भयंकर घाव नहीं भरता है। कर्णि, नालीक और नाराच-ये शरीर में यदि गड़ जायेंतो चिकित्सक मनुष्य हन्हें शरीर सें निकाल देते हैं, किंतु वचन रुपी बाण को निकालना असंभव होता है: क्योंकि हृदय के भीतर चुभा होता है । हीनांग (अंधे-काने आदि), अधिकांग (छांगुर आदि), विद्याहीन, निन्दित, कुरुप, निर्धन और निर्बल मनुष्यों पर आक्षेप करना उचित नहीं हैं । नास्तिकता, वेदों की निंदा, देवताओंक को कोसना, द्वेष उद्दण्डता, अभिमान और कठोरता-इन दुर्गुणों का त्याग करना देना चाहिये ।
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