महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 104 श्लोक 50-64
चतुरधिकशततम (104) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
नास्तिकों के साथ काम पड़ने पर भी न जायें। उनके शपथ खाने या प्रतिज्ञा करने पर भी उनके साथ यात्रा न करें। आसन को पैर से खींचकर मनुष्य उस पर न बैठे । विद्वान पुरुष कभी नग्न होकर स्नान न करें। रात में कभी न नहाऐं। स्नान के पश्चात अपने अंगों में तेल आदि की मालिश न करावें । स्नान किये बिना अपने अंगों में चन्दन या अंराग न लगावे। स्नान कर लेने पर गीले वस्त्र न झटकारे। मनुष्य भीगे वस्त्र कभी न पहने । गले में पड़ी हुई माला को कभी न खींचे। उसे कपड़े के ऊपन न धारण करे। रजस्वला स्त्री के साथ कभी बातचीत न करे । बाये हुए खेत में, गांव के आस-पास तथा पानी में कभी मल-मू्त्र का त्याग न करे । देव मन्दिर, गौओं के समुदाय, देव सम्बन्धी वृक्ष और विश्राम स्थान निकट तथा बढ़ी हुई खेती में भी मल-मू्त्र का त्याग नहीं करना चाहिये। भोजन कर लेने पर, छींक आने पर, रास्ता चलने पर तथा मल-मूत्र का त्याग करने पर यथोचित शुद्धि करके दो बार आचमन करे। आचमन में इतना जल पीये कि वह हृदय तक पहुंच जाये। भोजन करने की इच्छा वाला पुरुष पहले तीन बार मुख से जल का स्पर्श (आचमन) करे। फिर भोजन के पश्चात भी तीन आचमन करे। फिर अंगुष्ठ के मूल भाग से दो बार मूंह को पोंछें । भोजन करने वाला पुरुष प्रतिदिन पूर्व ओर मुंह करके मौन भाव से भोजन करे। भोजन करते समय परोसे हुऐ अन्न की निंदान करे। किंचिन मात्र अन्न थाली में छोड दें और भोजन करके मन ही मन अग्निका स्मरण करें । जो मनुष्य पूर्व दिशा की ओर मुंह करके भोजन करता है, उसे दीर्घायु, जो दक्षिण की ओर मुंह करके भोजन करता है उसे यश, जो पश्चिम की ओर मुख करके भोजन करता है उसे धन और और जो उत्तराभिमुख भोजन करता है उसे सत्य की प्राप्ति होती है। (मनसे) अग्नि का स्पर्श करके जल से संपूर्ण इन्द्रियों का, सब अंगों का नाभि का और दोनों हथेलियों का स्पर्श करे । भूसी, भस्म, बाल और मुर्दे की खोपड़ी आदि पर कभी न बैठें। दूसरे के नहाये हुए जल का दूर से ही त्याग कर दें । शांति-होम करे, सावित्र संज्ञक मंत्रों का जप और स्वाध्याय करे। वैठ कर ही भोजन करे, चलते-फिरते कभी भोजन नहीं करना चाहिये । खड़ा होकर पेशाब न करे। राख और गौशाला में भी मूत्र त्याग न करे, भीगे पैर भोजन तो करे, परंतु सयन न करे । भीगे पैर भोजन करने वाला मनुष्य सौ वर्षों तक जीवन धारण करता है। भोजन करके हाथ-मुंह धोऐ बिना मनुष्य उच्छिष्ट (अपवित्र) रहता है। ऐसी अवस्था में उसे अग्नि, गौ तथा ब्राह्माण – इन तीन तेजस्वियों का स्पर्श नहीं करना चाहिये। इस प्रकार आचरण करने से आयु का नाश नहीं होता है । उच्छिष्ट मनुष्य को सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्र- इन त्रिविध तेजों की ओर कभी दृष्टि नहीं डालनी चाहिये । वृद्व पुरुष के आने पर तरुण पुरुष के प्राण उपर की ओर उठनें लगते है। ऐसी दशा में जब वह खड़ा होकर वृद्व पुरुषों का स्वागत और उन्हें प्रणाम करता है, तब वे प्राण पुन: पूर्वावस्था में आ जाते है ।
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