महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 10 श्लोक 20-41
दशम (10) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
भरतश्रेष्ठ ! वहां यज्ञ के लिये वेदी, रहने के लिये स्थान और देवालय बनाकर मुनिकी भांति नियमपूर्वक रहने
लगा। वह तीनों समय नहाता, नियमों का पालन करता, देव-स्थानों में पूजा चढ़ाता, अग्नि में आहुति देता और देवता की पूजा करता था। वह मानसिक संकल्पों का नियंत्रण (चित्तवृतियों का निरोध) करते हुए फल खाकर रहता और इन्द्रियों को काबू में रखता था । उसके यहां जो अन्न और फल उपस्थित रहता, उन्हीं के द्वारा प्रतिदिन आये हुए अतिथियों का यथोचित सत्कार करता था । इस प्रकार रहते हुए उस शूद्र मुनि को बहुत समय बीत गया। एक दिन एक मुनि सत्संग की दृष्टि से उसके आश्रम पर पधारे । उस शूद्र ने विधिवत् स्वागत-सत्कार करके ऋषि का पूजन किया और उन्हें संतुष्ट कर दिया ।। भरतभुषण नरश्रेष्ठ ! तत्पश्चात् उसने अनुकूल बातें करके उनके आगमन का वृतान्त पूछा । तब से कठोर व्रत का पालन करने वाले वे परम तेजस्वी धर्मात्मा ऋषि अनेक बार उस शूद्र के आश्रम पर मिलन के लिये आये। भरतश्रेष्ठ ! एक दिन उस शूद्र ने उन तपस्वी
मुनि से कहा – ‘मैं पितरों का श्राद्ध करूंगा । आप उसमें अनुग्रह कीजिये’। भरतभूषण नरेश ! तब ब्राह्माण ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया । तत्पश्चात् शूद्र नहा-धोकर शुद्ध हो उन ब्रह्मर्षि के पैर धोन के लिये जल ले आया। भरतर्षभ ! तदनन्तर वह जंगली कुशा, अन्न आदि ओषधि, पवित्र आसन और कुशकी चटाई ले आया ।। उसने दक्षिण दिशा में जाकर ब्राह्माण के लिये पश्चिमाग्र चटाई बिछा दी । यह शास्त्र के विपरीत अनुचित आचार देखकर
ऋषि ने शूद्र से कहा -‘तुम इस कुश की चटाई का अग्रभाग तो पूर्व दिशा की ओर करो और स्वयं शुद्ध होकर उत्तराभिमुख बैठो ।‘ ऋषि ने जो-जो कहा, शूद्र ने वह सब किया। बुद्धिमान् शूद्र ने कुश, अर्ध्य आदि तथा हव्य-काव्य की विधि – सब कुछ उन तपस्वी मुनि के उपदेश के अनुसार ठीक-ठीक किया। ऋषि के द्वारा पितृकार्य विधिवत् सम्पन्न हो जाने पर वे ऋषि शूद्र से विदा लेकर चले गये और वह शूद्र धर्म मार्ग में स्थित हो गया। तदनन्तर दीर्घकाल तक तपस्या करके वह शुद्र तपस्वी वन में ही मृत्यु को प्राप्त हुआ और उसी पूण्य के प्रभाव से एक महान् राजवंश में महातेजस्वी बालक के रूप में उत्पन्न हुआ। तात ! इसी प्रकार वे ऋषि भी कालधर्म – मृत्यु को प्राप्त हुए । भरत श्रेष्ठ ! वे ही ऋषि दूसरे जन्म में उसी राजवंश के पुरोहित के कुल में उत्पन्न हुए । इस प्रकार वह शूद्र और वे मुनि दोनों ही वहां उत्पन्न हुए, क्रमश: बढ़े और सब प्रकार की विद्या में निपुण हो गये ।। वे ऋषि वेद और अथर्ववेद के परिनिष्ठित विद्वान हो गये । कल्पप्रयोग और ज्योतिष में भी पारंगत हुए । सांख्य में भी उनका परम अनुराग बढ़ने लगा। नरेश ! पिता के परलोकवासी हो जानेपर शुद्ध होने के पश्चात् मंत्री और प्रजा आदि ने मिलकर उस राजकुमार को राजा के पद पर अभिषक्त कर दिया ।। राजाने अभिषिक्त होने के साथ ही उस ऋषिका भी पुरोहित पदपर अभिषेक कर दिया। भरतश्रेष्ठ ! ऋषि को पुरोहित बनाकर वह राज सुखपूर्वक रहने और धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करते हुए राज्य का शासन करने लगा।
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