महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 113 श्लोक 1-11
त्रयोदशाधिकशततम (113) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
- बृहस्पतिजी का युधिष्ठर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताकर स्वर्गलोक को प्रस्थान
युधिष्ठिर ने पूछा- भगवान्। अहिंसा,वेदोक्त कर्म, ध्यान, इन्द्रिय-संयम, तपस्या और गुरू-शुश्रूषा इनमें से कौन–सा कर्म मनुष्य का (विशेष) कल्याण कर सकता है । बृहस्पतिदेवजी ने कहा- भरतश्रेष्ठ्! ये छ: प्रकार के कर्म ही धर्मजनक हैं तथा सब भिन्न-भिन्न कारणों से प्रकट हुए हैं। मैं इन छहों का वर्णन करता हूँ, तुम सुनो । अब मैं मनुष्य के कल्याण के लिये सर्वश्रेष्ठ उपाय का वर्णन करता हूँ। जो मनुष्य अहिंसायुक्त धर्म का पालन करता है, वह मोह, मद और मत्सरतारुप तीनों दोषों को अन्य समस्त प्राणियों में स्थापित करके एवं सदा काम-क्रोध का संयम करके सिद्धि को प्राप्त हो जाता है । जो मनुष्य अपने सुख की इच्छा रखकर अहिंसक प्राणियों को डंडे से मारता है, वह परलोक में सुखी नहीं होता है । जो मनुष्य सब भूतों को अपने समान समझता, किसी पर प्रहार नहीं करता (दण्डको हमेशाके लिये त्याग देता है)और क्रोध को अपने काबू में रखता है, वह मृत्युके पश्चात भोगता है । जो सम्पूर्ण भूतों का आत्मा है, अर्थात सब की आत्मा को अपनी ही आत्मा समझता है तथा जो सब भूतों को समान भाव से देखता है, उव गमनागमन से रहित ज्ञानी का पता लगाते समय देवता भी मोह में पड़ जाते हैं । जो बात अपने को अच्छी न लगे, वह दूसरें के प्रति भी नहीं करनी चाहिए। यही धर्म का संक्षिप्त लक्षण है। इससे भिन्न जो बर्ताव होता है, वह कामनामूलक है । मॉंगने पर देने और इनकार करने से, सुख और दु:ख पहुँचाने से तथा प्रिय और अप्रिय करने से पुरुष को स्वयं जैसे हर्ष–शोक अनुभव होता है, उसी प्रकार दूसरों के लिये भी समझे । जैसे एक मनुष्य दूसरोंपर आक्रमण करता है, उसी प्रकार अवसर आने पर दूसरे भी उसके उपर आक्रमण करते हैं। इसी को तुम जगत में अपने लिये भी दृष्टांत समझो। अत:किसी पर आक्रमण नहीं करना चाहिये। इस प्रकार यहां कौशलपूर्वक धर्मका उपदेश किया है । वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! धर्मराज युधिष्ठिर से इस प्रकार कहकर परम बुद्धिमान देवगुरु बृहस्पतिजी उस समय हम लागों के देखते-देखते स्वर्ग-लोक चले गये ।
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