महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 117 श्लोक 1-16

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सप्तदशाधिकशततम (117) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तदशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

शुभ कर्म से एक कीड़े को पूर्व-जन्म की स्मृति होना और कीट योनि में भी मृत्यु का भय एवं सुख की अनुभूति बताकर कीड़े का अपने कल्याण का उपाय पूछना

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह ! जो योद्धा महासमर में इचछा या अनिच्छा से मारे गये हैं, वे किस गति को प्राप्त हुए हैं ? यह मुझे बताइये। महाप्रज्ञ ! आप तो जानते ही हैं कि महासंग्राम में मनुष्यों के लिये प्राणों का परित्याग करना कितना दुःखदायक होता है। प्राणों का त्याग करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। प्राणी उन्नति या अवनति, शुभ या अशुभ किसी भी अवस्था में मरना नहीं चाहते हैं। इसका क्या कारण है ? यह मुझे बताइये; क्योंकि मेरी दृष्अि में आप सर्वज्ञ हैं। भीष्मजी ने कहा- पृथ्वीनाथ ! इस संसार में आये हुए प्राणी उन्नति में या अवनति में तथा शुभ या अशुभ अवस्था में ही सुख मानते हैं। मरना नहीं चाहते। इसका क्या कारण है, यह बताता हूँ, सुनो। युधिष्ठिर ! यह तुमने बहुत अच्छा प्रश्न किया उपस्थित किया है। नरेश्वर ! युधिष्ठिर ! इस विषय में द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का संवाद रूप जो यह प्राचीन वृत्तान्त प्रसिद्ध है, वही तुम्हें बता रहा हूँ। पहले की बात है, ब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्णद्वैपायन विप्रवर व्यासजी कहीं जा रहे थे। उन्होंने एक कीडत्रे को गाड़ी की लीक से बड़ी तेजी के साथ भागते देखा। सर्वज्ञ व्यासजी सम्पूर्ण प्राणियों की गति के ज्ञाता तथा सभी देहधारियों की भाषा को समझने वाले हैं। उन्होंने उस कीड़े को देखकर इस प्रकार बातचीत की। व्यासजी ने पूछा- कीट ! आज तुम बहुत डरे हुए और उतावले दिखायी दे रहे हो, बताओ तो सही- कहाँ भागे जा रहे हो ? कहाँ से तुम्हें भय प्राप्त हुआ है ? कीड़े ने कहा- महामते ! यह जो बहुत बड़ी बैलगाड़ी आ रही है, इसी की घर्घराहट सुनकर मुझे भय हो गया है; क्योंकि उसकी आवाज बड़ी भयंकर है। यह आवाज जब कानों में पडत्रती है, तब यह संदेह होता है कि कहीं गाड़ी आकर मुझे कुचल न डाले। इसीलिये यहाँ से जल्दी-जल्दी भाग रहा हूँ। यह देखिये बैलों पर चाबुक की मार पड़ रही है और वे बहुत भारी बोझ लिये हाँफते हुए इधर आ रहे हैं। प्रभो ! मुझे उनकी आवाज बहुत निकट सुनायी पड़ती है। गाड़ी पर बैठे हुए मनुष्यों के भी नाना प्रकार के शब्द कानों में पड़ रहे हैं। मेरे जैसे कीड़े के लिये इस भयंकर शब्द को धैर्यपूर्वक सुन सकना असम्भव है। अतः इस अत्यन्त दारुण भय से अपनी रक्षा करने के लिये मैं यहाँ से भाग रहा हूँ। प्राणियों के लिये मृत्यु बड़ी दुःखदायिनी होती है। अपना जीवन सबको अत्यन्त दुर्लभ जान पड़ता है। अतः डरकर भागा जा रहा हूँ। कहीं ऐसा न हो कि मैं सुख से दुःख में पड़ जाऊँ। भीष्मजी कहते हैं- राजन् ! कीड़े के ऐसा कहने पर व्यासजी ने उससे पूछा- ‘कीट ! तुम्हें सुख कहाँ है ?’ मेरी समझ में तो तुम्हारा कर जाना ही तुम्हारे लिये सुख की बात है; क्योंकि तुम तिर्यक् योनि- अधम कीट-योनि में पड़े हो। ‘कीट ! तुम्हें शब्द, स्पर्श, रस, गन्ध तथा बहुत से छोटे-बड़े भोगों का अनुभव नहीं होता है। अतः तुम्हारा तो मर जाना ही अच्छा है’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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