महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 124 श्लोक 1-2
चतुर्विशत्यधिकशततम (124) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
युधिष्ठिर ने कहा पितामह ! जो सर्वोत्तम कर्तव्य.रूप से जानने योग्य हैए महात्मा पुरूष जिसका अनुष्ठन करना अपना धर्म समझते हैं तथा जो सम्पूर्ण शास्त्रों का सार हैए उस श्रेय का कृपापूर्वक वर्णन किजिये। भीष्मजी ने कहा प्रजानाथ ! जो अत्यन्त गूढ संसारबन्धन से मुक्त करने वाला और तुम्हारे द्वारा श्रवण करने एवं भलीभाँति जानने के योग्य हैए उस परम श्रेय का वर्णन सुनों।
प्राचीन काल की बात हैए पुण्डरीक नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण किसी पुण्यतीर्थ में सदा जप किया करते थे। उन्होंने योगपरायण मुनिवर नारदजी से श्रेय; कल्याण्कारी साधन के विषय में पूछा । तब नारद जी ने महात्मा ब्रह्माजी के द्वारा बताये हुए श्रेय का उन्हें इस प्रकार उपदेश दिया। नारदजी ने कहा दृ तात ! तुम सावधान होकर परम उत्तम ज्ञानयोग का वर्णन सुनो। यह किसी व्यक्ति विशेष से नहीं प्रकट हुआ है अनादि हैए प्रचुर अर्थ का साधक है तथा वेदों और शास्त्रों के अर्थ का सारभूत है। जो चौबीस तत्वमयी प्रकृति से उसका साक्षिभूत पचीसवाँ तत्व पुरूष कहा गया है तथा जो सम्पूर्ण भूतों का आत्मा है उसी को नर कहते हैं। नर से सम्पूर्ण तत्व प्रकट हुए हैं इसलिये उन्हें नार कहते हैं। नार ही भगवान का अयन निवास स्थान है इसलिये वे नारायण कहलाते हैं। सृष्ठिकाल में यह सारा जगत नारायण से ही प्रकट होता है और प्रलयकाल में फिर उन्हीं में इसका लय होता है।
नारायण ही परब्रह्म हैं परमपुरूष नारायण ही सम्पूर्ण तत्व हैं वे ही पर से भी परे हैं। उनके सिवा दूसरा कोई परात्पर तत्त्व नहीं है। उन्हीं को वासुदेव विष्णु तथा आत्मा कहते हैं। संज्ञा भेद से एकमात्र नारायण ही सम्पूर्ण शास्त्रों द्वारा वर्णित होते हैं। समस्त शास्त्रों का आलोडन करके बारंबार विचार करने पर एकमात्र यही सिद्धान्त स्थिर हुआ है कि सदा भगवान नारायण का ध्यान करना चाहिये। अत तुम शास्त्रार्थ के सम्पूर्ण गहन विस्तार का त्याग करके अनन्यचित्त होकर सर्वव्यापी अजन्मा भगवान नारायण का ध्यान करो। जो आलस्य छोड़कर दो घड़ी भी नारायण का ध्यान करता हैए वह भी उत्तम गति को प्राप्त होता है । फिर जो निरन्तर उन्हीं के भजन ध्यान में तत्पर रहता है उसकी तो बात ही क्या है। जो ॐनमो नारायणाय इस अष्टाक्षर मन्त्र को सनातन ब्रह्मरूप जानता है और अन्तकाल में इसका जप करता हैए वह भगवान विष्णु के परम पद को प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य अपना हित चाहता होए वह सदा श्रवणए मननए गीतए स्तुति और पूजन आदि के द्वारा सर्वदा ब्रह्मस्वरूप नारायण की आराधना करे। नारायण के भजन में तत्पर रहने वाला पुरूष पाप से लिप्त नहीं होता। वह उदित हुए सहस्त्र किरणोंवाले सूर्य की भांति समस्त लोक को पवित्र कर देता है। ब्रह्मचारी हो या गृहस्थए वानप्रस्थ हो या संन्यासी भगवान विष्णु की आराधना छोड़ देने पर ये कोई भी परम गति को नहीं प्राप्त होते हैं।
उत्तम व्रत का पालन करने वाले पुण्डरीक ! सहस्त्रों जन्म धारण करने पर भी भगवान विष्णु में मन और बुद्धि का लगना अत्यन्त दुर्लभ है। अतरू तुम उन भक्तवत्सल नारायण देव की भलीभाँति आराधना करो। भीष्मजी कहते हैं दृ राजन ! नारदजी के इस प्रकार उपदेश देने पर विप्रवर पुण्डरीक भगवान श्रीहरि की आराधना करने लगे । वे स्वप्न में भी शंख.चक्र गदाधारीए किरीट और कुण्डल से सुशोभितए सुन्दर श्रीवत्स.चिन्ह एवं कौस्तुभमणि धारण करने वाले कमलनयन नारायण देव का दर्शन करते थे और उन देवदेवेश्वर को देखते ही बड़े वेग से उठकर उनके चरणों में साष्टांग प्रणाम करते थे।
तदनन्तर दीर्घकाल के बाद भगवान ने उसी रूप में पुण्डरीक को प्रत्यक्ष दर्शन दिया । उस समय सम्पूर्ण वेद तथा देवता गन्धर्व और किन्नर नाना प्रकार के स्तोत्रों द्वारा उनकी स्तुति करते थे। योग ही जिनका निवासस्थान हैए वे भगवान अधोक्षज श्रीहरि सबके द्वारा पूजित हो उस भक्त पुण्डरीक को साथ लेकर ही पुन अपने धाम को चले गये। राजेन्द्र ! इसीलिये तुम भी भगवान के भक्त एवं शरणागत होकर उनकी यथायोग्य पूजा करके उन्हीं पुरूषोत्तम के भजन में लगे रहो। जो अजर अमर एक अद्वितीय ध्येय अनादि अनन्त सगुण निर्गुण सबके आदि कारण स्थूल अत्यन्त सूक्ष्म उपमारहित उपमा के योग्य तथा योगिरयों के लिये ज्ञान.गम्य है उन त्रिभुवनगुरू भगवान विष्णु की शरण लो। युधिष्ठिर ने पूछा भरतश्रेष्ठ ! आपके मत में साम और दान में कौनसा श्रेष्ठ है इनमें जो उत्कृष्ट हो उसे बताइये। भीष्मजी ने कहा बेटा ! कोई मनुष्य साम से प्रसन्न होता है और कोई दान से । अत पुरूष के स्वभाव को समझकर दोनों से एक को अपनाना चाहिये।
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