महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 125 श्लोक 1-17

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पञ्चविंशत्यधिकशततम (125) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों काए पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र और बृहस्पति का वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं ॠषियों और पितरों का संवाद युधिष्ठिर ने पूछा पितामह ! मनुष्यकुल में जन्म और परम दुर्लभ कर्मक्षेत्र पाकर अपना कल्याण चाहने वाले दरिद्र पुरूष को क्या करना चाहिये। गंगानन्दन ! सब दानों में जो उत्तम दान है जिस बस्तु का जिस-जिस प्रकार से दान करना उचित है तथा जो माननीय और पूजनीय हैं इन सब रहस्यमय; गोपनीय विषयों का वर्णन कीजिये। वैशम्पायनजी कहते हैं जनमेजय ! यशस्वी पाण्डुपुत्र महाराज युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर भीष्मजी ने उनसे धर्म का परम गुहृा रहस्य बताना आरम्भ किया। भीष्मजी ने कहा राजन ! भरतनन्दन ! पूर्वकाल में भगवान वेदव्यास ने मुझे धर्म के जो गूढ रहस्य बताये थे उनका वर्णन करता हूँ सावधान होकर सुनो। राजन ! अनायास ही महान कर्म करने वाले यम ने नियमपरायण और योगयुक्त होकर महान तप के फलस्वरूप इस देवगुहृय रहस्य को प्राप्त किया था। जिससे देवता पितर ॠषि प्रमथगण लक्ष्मी चित्रगुप्त और दिग्गज प्रसन्न होत हैं। जिसमें महान फल देने वाले ॠषिधर्म का रहस्यसहित समावेश हुआ तथा जिसके अनुष्ठान से बड़े-बड़े दानों और सम्पूर्ण यज्ञों का फल मिलता है।
निष्पाप नरेश ! जो उस धर्म को इस प्रकार जानता और जानकर इसके अनुसार आचरण करता हैए वह सदोष; पापी रहा हो भी तो उस दोष से मुक्त होकर उन सद्गुणों से सम्पन्न हो जाता है। दस कसाइयों के समान एक तेली दस तेलियों के समान एक कलवार दस कलवारों के समान एक वेश्या और दस वेश्याओं के समान एक राजा है। राजा इन सबकी अपेक्षा अधिक दोषयुक्त बताया जाता हैए इसलिये ये सब पाप राजा के आधे से भी कम हैं । अत राजा का दान लेना निषिद्ध है । धर्म अर्थ और काम का प्रतिपादन करने वाला जो शास्त्र है वह पवित्र एवं पुण्य का परिचय कराने वाला है। उसमें धर्म और उसके रहस्यों की व्याख्या है वह परम पवित्रए महान रहस्यमय तत्त्व का श्रवण कराने वाला धर्मयुक्त और साक्षात देवताओं द्वारा निर्मित है । उसका श्रवण करना चाहिये। जिसमें पितरों के श्राद्ध के विषय में गूढ बातें बतायी गयी हैं जहाँ सम्पूर्ण देवताओं के रहस्य का पूरा-पूरा वर्णन है तथा जिसमें रहस्यसहित महान फलदायी ॠषि-धर्म का एवं बड़े-बड़े यज्ञों और सम्पूर्ण दानों के फल का प्रतिपादन किया गया है।
जो मनुष्य उस शास्त्र को सदा पढते हैं जिन्हें उसका तत्त्व हृदयंगम हो जाता है तथा जो उसका फल सुनकर दूसरों के सामने व्याख्या करते हैं वे साक्षात भगवान नारायण स्वरूप हो जाते हैं। जो मानव अतिथियों की पूजा करता है वह गोदान तीर्थस्थान और यज्ञानुष्ठान का फल पा लेता है। जो श्रद्वापूर्वक धर्मशास्त्र का श्रवण करते हैं तथा जिनका हृदय शुद्ध हो गया है वे श्रद्धालू एवं श्रेष्ठ मन के द्वारा अवश्य ही पुण्यलोक पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। शुद्धचित्त पुरूष श्रद्धापूर्वक शास्त्र-श्रवण करने से पूर्व पाप से मुक्त हो जाता है तथा वह भविष्य में भी पाप से लिप्त नहीं होता है। नित्य-प्रति धर्म का अनुष्ठान करता है और मरने के बाद उसे उत्तम लोक की प्राप्ति होती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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