महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 125 श्लोक 73-83
पञ्चविंशत्यधिकशततम (125) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
‘नीले रंग के सॉंड़ छोड़ने से, अमावस्या को तिल मिश्रित जल द्वारा तर्पण करने से और वर्षा-ऋतु में पितरों के लिये दीप देने से मनुष्य उनके ऋण से मुक्त हो सकता है। इस तरह निष्कपट भाव से किया हुआ दान अक्षय एवं महान् फलदायक होता है और उससे हमें भी अक्षय संतोष प्राप्त होता है- ऐसा शास्त्र का कथन है। जो मनुष्य पितरों में श्रद्धा रखकर संतान उत्पन्न करेंगे, वे अपने प्रपितामहों का दुर्गम नरक से उद्धार कर देंगे। पितरों का यह भाषण सुनकर तपस्या के धनी महातेजस्वी वृद्धगार्ग्य के शरीर में रोमांच हो आया और उनसे इस प्रकार पूछा-‘तपोधनों ! नीले रंग के सॉंड़ छोड़ने, वर्षा-ऋतु में दीप देने और अमावस्या को तिल मिश्रित जल द्वारा तर्पण करने करने से क्या लाभ होते हैं ?” पितरों ने कहा- मुने! छोड़े हुये नीले रंग के सॉंड़ की पूँछ यदि नदी आदि के जल में भीगकर उस जल को ऊपर उछालती है तो जिसने उस सॉंड़ को छोड़ा है उसके पितर साठ हजार वर्षों तक उस जल से तृप्त रहते हैं। जो नदी या तालाब के तट से अपने सींगों द्वारा कीचड़ उछालकर खड़ा होता है, उससे वृषोत्सर्ग करने वाले के पितर निस्संदेह चन्द्रलोक में जाते हैं।
वर्षा–ऋतु में दीनदान करने से मनुष्य चन्द्रमा के समान शोभा पाता है । जो दीपदान करता है, उसके लिये नरक का अन्धकार है ही नहीं। तपोधन! जो मनुष्य अमावस्या के दिन तॉंबे के पात्र में मधु एवं तिल से मिश्रित जल लेकर उसके द्वारा पितरों का तपर्ण करते हैं, उनके द्वारा रहस्यसहित श्राद्धकर्म यथार्थ रूप से समपादित हो जाता है। उनकी प्रजा सदा ह्ष्ट-पुष्ट मनवाली होती है । कुल और वंश-परम्परा की वृद्धि श्राद्ध का फल है । पिण्डदान करने वाले को यह फल सुलभ होता है । जो श्रद्धापूर्वक पितरों का श्राद्ध करता है, वह उनके ऋण से छुटकारा पा जाता है। इस प्रकार यह श्राद्ध के काल, क्रम, विधि पात्र और फल का यथावत् रूप से वर्णन किया गया है।
« पीछे | आगे » |