महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 12 श्लोक 3-22

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द्वादश (12) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: द्वादश अध्याय: श्लोक 3-22 का हिन्दी अनुवाद

पुरूषसिंह ! पहले की बात है, भंगास्‍वन नाम से प्रसिद्ध अत्‍यंत धर्मात्‍मा राजर्षि पुत्रहीन होने के कारण पुत्र-प्राप्ति के लिय यज्ञ करते थे। उन महाबली राजर्षि ने अग्निष्‍टुत नामक यज्ञ का आयोजन किया था। उसमें इन्‍द्र की प्रधानता न होने के कारण इन्‍द्र उस यज्ञ में द्वेष रखते हैं । वह यज्ञ मनुष्‍यों के प्रायश्चित के अवसर पर अथवा पुत्र की कामना होने पर अभीष्‍ट मानकर किया जाता है। महाभाग देवराज इन्‍द्र को जब उस यज्ञ की बात मालूम हुई तब वे मन को वश में रखने वाले राजर्षि भंगास्‍वन का छिद्र ढूंढने लगे। राजन् ! बहुत ढूंढने पर भी वे उस महामना नरेश का कोई छिद्र न देख सके । कुछ काल के अनन्‍तर राजा भंगास्‍वन शिकार खेलने के लिये वन में गये। नरेश्‍वर ! ‘यही बदला लेने का अवसर है’ ऐसा निश्‍चय करके इन्‍द्र ने राजा को मोह में डाल दिया । इन्‍द्र द्वारा मोहित एवं भ्रान्‍त हुए राजर्षि भंगास्‍वन एकमात्र घोड़े के साथ इधर-उधर भटकने लगे । उन्‍हे दिशाओं का भी पता नहीं चलता था । वे भूख-प्‍यास से पीडि़त तथा परिश्रम और तृष्‍णा से विकल हो इधर-उधर घूमते रहे। तात ! घूमते-घूमते उन्‍होंने उत्‍तम जल से भरा हुआ एक सुन्‍दर सरोवर देखा । उन्‍होनें घोड़े को उस सरोवर में स्‍नान कराकर पानी पिलाया। जब घोड़ा पानी पी चुका तब उसे एक वृक्ष में बांधकर वे श्रेष्‍ठ नरेश स्‍वयं भी जल से उतरे । उसमें स्‍नान करते ही वे राजा स्‍त्री भाव को प्राप्‍त हो गये। अपने को स्‍त्री रूप में देखकर राजा को बड़ी लज्‍जा हुई । उनके सारे अन्‍त: करण में भारी चिन्‍ता व्‍याप्‍त हो गयी । उनकी इन्द्रियां और चेतना व्‍याकुल हो उठीं।
वे स्‍त्री रूप में इस प्रकार सोचने लगे – अब मैं कैसे घोड़े पर चढूंगी ? मेरे अग्निष्‍टुत यज्ञ के अनुष्‍ठान से मुझे सौ महाबलवान् औरस पुत्र प्राप्‍त हुए हैं । उन सबसे क्‍या कहूंगी ? अपनी स्त्रियों तथा नगर और जनपद के लोगों में कैसे जाउंगी? ‘धर्म के तत्‍वों को देखने और जानने वाले ऋषियों ने मृदुता, कुशलता और व्‍याकुलता – ये स्‍त्री के गुण बताये हैं। ‘परिश्रम करने में कठोरता और बल पराक्रम – ये पुरूष के गुण हैं । मेरा पौरूष नष्‍ट हो गया और किसी अज्ञात कारण से मुझ में स्‍त्रीत्‍व प्रकट हो गया। ‘अब स्‍त्रीभाव आ जाने से उस अश्‍व पर कैसे चढ़ सकूंगी ? तात ! किसी-किेसी तरह महान् प्रयत्‍न करके वे स्‍त्रीरूप धारी नरेश घोड़े पर चढ़कर अपने नगर में आये। राजा के पुत्र, स्त्रियां, सेवक तथा नगर और जनपद के लोग, ‘यह क्‍या हुआ ?’ – ऐसी जिज्ञासा करते हुए बड़े आश्‍चर्य में पड़ गये। तब स्‍त्रीरूपधारी, वक्‍ताओं में श्रेष्‍ठ राजर्षि भंगास्‍वन बोले – ‘मैं अपनी सेना में घिरकर शिकार खेलन के लिए निकला था, परंतु दैवकी प्रेरणा से भ्रान्‍तचित होकर एक भयानक वन में जा घुसा। उस घोर वन में प्‍यास से पीडित एवं अचेत-सा होकर मैंने एक सरोवर देखा, जो पक्षियों से घिरा हुआ और मनोहर शोभा से सम्‍पन्‍न था। उस सरोवर में उतरकर स्‍नान करते ही दैव ने मुझे स्त्री बना दिया। अपनी स्त्रियों ओर मंत्रियों के नाम-गोत्र बताकर उन स्‍त्रीरूपधारी श्रेष्‍ठ नरेश ने अपने पुत्रों से कहा – ‘पुत्रों ! तुमलोग आपस में प्रेमपूर्वक रहकर राज्‍य का उपभोग करो । अब मैं वन को चला जाउंगा’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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