महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 12 श्लोक 40-54
द्वादश (12) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
'तुमने उस यज्ञ का अनुष्ठा किया जिसका मुझसे वैर है । मेरा आवाहन न करने तुमने वह यज्ञ पूरा कर लिया । खोटी बुद्धिवाली स्त्री ! मैं वही इन्द्र हूं और तुमसे मैंने ही अपने वैर का बदला लिया है'। इन्द्र को देखकर वे स्त्रीरूपधारी राजर्षि उनके चरणों में सिर रखकर बोले - 'सुरश्रेष्ठ ! आप प्रसन्न हों । मैंने पुत्र की इच्छा से वह यज्ञ किया था । देवेश्वर ! उसके लिये आप मुझे क्षमा करें'। 'इनके इस प्रकार प्रणाम करने पर इन्द्र संतुष्ट हो गये और वर देने के लिये उद्यत होकर बोले - राजन् ! तुम्हारें कौन-से पुत्र जीवित हो जायें ? तुमने स्त्री होकर जिन्हें उत्पन्न किया था, वे अथवा पुरूषावस्था में जो तुमसे उत्पन्न हुए थे ?' तब तापसी ने इन्द्र से हाथ जोड़कर कहा - 'देवेन्द्र ! स्त्रीरूप हो जाने पर मुझसे जो पुत्र उत्पन्न हुए हैं, वे ही जीवित हो जायं। तब इन्द्र ने विस्मित होकर उस स्त्री से पूछा - 'तुमने पुरूषरूप से जिन्हें उत्पन्न किया था, वे पुत्र तुम्हारे द्वेष के पात्र क्यों हो गये ? तथा स्त्री रूप होकर तुमने जिनको जन्म दिया है, उनपर तुम्हारा अधिक स्नेह क्यों है ? मैं इसका कारण सुनना चाहता हूं। तुम्हें मुझसे यहबताना चाहिये।
स्त्री ने कहा - इन्द्र ! स्त्री का अपने पुत्रों पर अधिक स्नेह होता है, वैसा स्नहे पुरूष का नहीं होता है। अत: इन्द्र ! स्त्री रूप में आने पर मुझसे जिनका जन्म हुआ है, वे ही जीवित हो जायं। भीष्म जी कहते हैं - राजन् ! तापसी के यों कहने पर इन्द्र बड़े प्रसन्न हुए और इस प्रकार बोले - 'सत्यवादिनि ! तुम्हारे सभी पुत्र जीवित हो जायं।
'उतम व्रत का पालन करने वाले राजेन्द्र ! तुम मझसे अपनी इच्छा के अनुसार दूसरा वर भी मांग लो । बोलो, फिर से पुरूष होना चाहते होया स्त्री ही रहने की इच्छा ? जो चाहों वह मुझसे ले लो'। स्त्री ने कहा - इन्द्र ! मैं स्त्रीत्व की वरण करती हूं । वासव ! अब मैं पुरूष होना नहीं चाहती । उसके ऐसा कहने पर देवराज ने उस स्त्री से पूछा -'प्रभो ! तुम्हे पुरूषत्व का त्याग करके स्त्री बने रहने की इच्छा क्यों होती है ?' इन्द्र के यों पूछने पर उन स्त्री रूपधारी नृपश्रेष्ठ ने इस प्रकार उत्तर दिया -'देवेन्द्र ! स्त्री का पुरूष के साथ संयोग होन पर स्त्री को ही पुरूष की अपेक्षा अधिक विषयसुख प्राप्त होता है, इसी कारण से मैं स्त्रीत्व का ही वरण करती हूं'। 'देवश्रेष्ठ ! सुरेश्वर ! मैं सच कहती हूं, स्त्री रूप में मैंने अधिक रति-सुख का अनुभव
किया है, अत: स्त्री रूप से ही संतुष्ट हूं। आप पधारिये। महाराज ! तब 'एवमस्तु' कहकर उस तापसी से विदा ले इन्द्र स्वर्ग लोक को चले गये। इस प्रकार स्त्री को विषय-भोग में पुरूष की अपेक्षा अधिक सुख-प्राप्त बतायी जाती है।
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