महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-10
पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
त्रिवर्ग का निरुपण तथा कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
आजीविका के उपायों से धन का उपार्जन करके विद्वान् पुरूष धर्म, अर्थ, काम तथा संकट-निवारण- इन चारों के उद्देष्य से उस धन के चार भाग करे।भामिनि! उन चारों विभागों में भी जैसा विधान है, उसे सुनो। यज्ञ करने, दीन-दुःखियों पर अनुग्रह करके अन्न देने, देवताओं, ब्राह्मणों तथा पितरों की पूजा करने, मूलधन की रक्षा करने, सत्पुरूषों के रहने तथा क्रियापरायण धर्मात्मा पुरूषों के सहयोग के लिये तथा इसी प्रकार अन्यान्य सत्कर्मों के उद्देष्य से धर्मार्थ धन का दान करे। फल की प्राप्ति का विचार न करके धर्म के कार्य में धन देना चाहिये। ऐश्वर्यपूर्ण स्थान की प्राप्ति के लिये, राजा का प्रिय होने के लिये, कृषि, गोरक्षा अथवा वाणिज्य के आरम्भ के लिये, मन्त्रियों और मित्रों के संग्रह के लिये, आमन्त्रण और विवाह के लिये, पूर्ण पुरूषों की वृत्ति के लिये, धन की उत्पत्ति एवं प्राप्ति के लिये तथा अनर्थ के निवारण और ऐसे ही अन्य कार्यों के लिये अर्थार्थ धन का त्याग करना चाहिये। हेतुयुक्त अनुबन्ध (सकारण सम्बन्ध) देखकर उसके लिये धन का त्याग करना चाहिये। अर्थ अनर्थ का निवारण करता है तथा धन एवं अभीष्ट फल की प्राप्ति कराता है। निर्धन मनुष्य सैकड़ों यत्न करके भी धन नहीं पा सकते। अतः धन की रक्षा करनी चाहिये तथा विधिपूर्वक उसका दान करना चाहिये। शरीर के पोषण के लिये विशेष प्रकार के आहार की व्यवस्था तथा ऐसे ही अन्य कार्यों के निमित्त कामार्थ धन का व्यय करना उचित है। गुण-दोष का विचार करके धर्म, अर्थ और काम सम्बन्धी धनों का तत्तत् कार्यों में व्यय करना चाहिये। शुचिस्मिते! धन का जो चौथा भाग हैए उसे आपत्तिकाल के लिये सदा सुरक्षित रखे। शोभने! राज्य-विध्वंस का निवारण करने, दुर्भिक्ष के समय काम आने, बड़े-बड़े रोगों से छुटकारा पाने, बुढ़ापे में जीवन-निर्वाह करने, साहस और अमर्षपूर्वक शत्रुओं से बदला लेने, विदेश यात्रा करने तथा सब प्रकार की आपत्तियों से छुटकारा पाने आदि के उद्देश्य से अपने धन को अपने निकट बचाये रखना चाहिये। धन संकटों से छुड़ाने वाला है, इसलिये इस जगत् में धनवानों को सुख होता है। वह धन यश, आयु तथा स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला है। इतना ही नहीं, वह परम यशस्वरूप है। धर्म, अर्थ और काम यह त्रिवर्ग कहलाता है। वह जिनके वश में होता है, उन सबके लिये कल्याणकारी होता है। ऐसा बर्ताव करने वाले लोग उभय लोक में अपना हित साधन करते हैं। प्रातःकाल उठना, शौच, स्नान करके शुद्ध होना, देवताओं और ब्राह्मणों में भक्ति रखते हुए गुरुजनों की सेवा तथा ब्राह्मण वर्ग को प्रणाम करनाए बड़े बूढ़ों के आने पर उठकर उनका स्वागत करना, देवस्थान में मस्तक झुकाना, अतिथियों के सम्मुख होकर उनका उचित आदर सत्कार करना, बड़े बूढ़ों के उपदेश को मानना और आचरण में लानाए उनके हितकर और लाभदायक वचनों को सुनना, भृत्यवर्ग को सान्त्वना और अभीष्ट वस्तु का दान देकर अपनाते हुए उसका पालन-पोषण करना, न्याययुक्त कर्म करना, अन्याय और अहितकर कार्य को त्याग देना, अपनी स्त्री के साथ अच्छा बर्ताव करना, दोषों का निवारण करना, पुत्रों को विनय सिखाना, उन्हें भिन्न-भिन्न आवश्यक कार्यों में लगाना, अशुभ पदार्थों को त्याग देना, शुभ पदार्थों का सेवन करना, कुलोचित धर्मों का यथावत् रूप से पालन करना और अपने ही पुरुषार्थ से सर्वथा अपने कुल की रक्षा करना इत्यादि सारे शुभ व्यवहार वृत्त कहे गये हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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