महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-29

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पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

प्राणियों के चार भेदों का निरुपण,पुर्वजन्म की स्मृति का रहस्य,मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्रदर्शन,दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-29 का हिन्दी अनुवाद

तप और दान आदि जो कर्म हैं, वे सब व्यर्थ दिखायी देते हैं, किन्तु जीवात्मा का पुनर्जन्म नहीं होता है। ऐसी कुछ लोगों की मान्यता है। शास्त्रों के परोक्षवाणी वचन सुनकर और प्रत्यक्ष दर्शन न होने से कितने ही लोग इस संशय में पड़े रहते हैं कि वह सब (परलोक) नहीं है, नहीं है। इस पक्षभेद के भीतर यथार्थवाद क्या है? यह मुझे बताने की कृपा करें। भगवन्! आपने जो कुछ बताया है, वही लोक की स्थिति है। नारदजी कहते हैं- रूद्राणी के यह प्रश्न उपस्थित करने पर सारी मुनिमण्डली एकाग्रचित्त होकर इसका उत्तर सुनने के लिये उत्कण्ठित हो गयी।। श्रीमहेश्वर ने कहा- महाभागे! इस विषय में नास्तिक लोग जो कुछ कहते हैं, वह ठीक नहीं है। यह तो कलंकित शास्त्रद्रोही पुरूषों का मत है। मैंने पहले तुमसे जो कुछ कहा है, वह सारा विषय शास्त्रसम्मत तथा अनुभूत है। तभी से मनुष्यों में जो विद्वान् पुरूष हैं, वे वेद-शास्त्र का आश्रय ले परिघ-जैसी कामनाओं का उच्छेद करके धैर्यपूर्वक उत्तम आसन लगाये ध्यानमग्न रहते हैं, वे कर्मों का फल प्रत्यक्ष देखते हुए स्वर्ग (ब्रह्म) लोक को ही जाते हैं। इस प्रकार परलोक में श्रद्धाजनित महान् फल की प्राप्ति होती है। जो अपना हित चाहते हैं, उन पुरूषों के लिये बुद्धि, श्रद्धा और विनय- ये कारण (उन्नति के साधन) हैं। अतः कुछ ही लोग उक्त साधन से सम्पन्न होने के कारण स्वर्ग आदि पुण्यलोकों में जाते हैं। दूसरे लोग उन साधनों से हीन होने के कारण नास्तिक भाव का अवलम्बन लेते हैं। वेदविद्वेषी मूर्ख, नास्तिक, अदृढ़निश्चय वाले, क्रियाहीन तथा अन्नार्थियों को बिना कुछ दिये ही घर से निकाल देने वाले पापी मनुष्य अधम गति को प्राप्त होते हैं। पुनर्जन्म नहीं होता है या होता है, इस विषय में बड़े-बड़े विद्वान् मोहित हो जाते हैं। वे सैकड़ों युक्तिवादों द्वारा भी उसे सर्वथा नहीं समझ पाते हैं। यह ब्रह्माजी के द्वारा रची माया है, जिसे देवता और असुर भी बड़ी कठिनाई से समझ पाते हैं, फिर दूषित बुद्धि वाले मानव यदि लोक में इस विषय को जानना चाहें तो कैसे जान सकते हैं। देवि! केवल वेद में पूर्णतः श्रद्धा करके ‘परलोक एवं पुनर्जन्म होता है’ ऐसा मानना चाहिये। इससे आस्तिक मनुष्य का हित होता है। देवि! देवसम्बन्धी जो दूसरे-दूसरे गुह्य विषय हैं, उनमें युक्तिवाद काम नहीं देता। जो अपना हित चाहने वाले हैं, उन्हें इस विषय में अन्धे और बहरे के समान बर्ताव करना चाहिये। अर्थात् नास्तिकों की ओर न तो देखे और न उनकी बातें ही सुने। देवि! यह ऋषियों के लिये गोपनीय तथा प्रजा के लिये हितकर विषय तुम्हें बताया गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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