महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-42

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पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-42 का हिन्दी अनुवाद

शुभाशुभ मानस आदि तीन प्रकार के कर्मो कास्वरुप और उनके फल का एवं मद्द्सेवन के दोषों कावर्णन,आहार-शुद्धि,मांसभक्षण से दोष,मांस न खानेसे लाभ,जीवदया के महत्व,गुरुपूजा कीविधि,उपवास-विधि,ब्र्हमचर्यपालन,तीर्थचर्चा,सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य,अन्न,सुवर्ण, गौभुमि, कन्या और विद्यादान का माहात्म्य , पुण्यतम देशकाल, दिये हुये दान और धर्म की निष्फलता, विविध प्रकार के दान, लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताऔं की पूजा का निरुपण

अब मैं इन छहों के विशेष गुणों का वर्णन करता हूँ, सुनो! जो आदिकाल से ही मन, वाणी, शरीरा और क्रिया द्वारा शुद्ध हो, सत्यवादी, क्रोधविजयी, लोभहीन, अदोषदर्शी, श्रद्धालु और आस्तिक हो, ऐसा दाता उत्तम बताया गया है। जो शुद्ध, जितेन्द्रिय, क्रोध को जीतने वाला, उदार एवं उच्च् कुल में उत्पन्न, शास्त्रज्ञान एवं सदाचार से सम्पन्न, बहुत से स्त्री-पुत्रों से संयुक्त, पंचयज्ञपरायण तथा सदा नीरोग शरीर से युक्त हो, वही दान लेने का उत्तम पात्र है। उपर्युक्त गुणों को ही दानपात्र के उत्तम गुण समझो। ऐसे पात्र की ही प्रशंसा की जाती है। देवता, पितर और अग्निहोत्रसम्बन्धी कार्यों में उसको दिये हुए दान का महान् फल होता है। लोक में जो जिस वस्तु के योग्य हो, वही उस वस्तु को पाने का पात्र होता है। जिस वस्तु के पाने से आपत्ति में पड़ा हुआ मनुष्य आपत्ति से छूट जाय, उस वस्तु का वही पात्र है। भूखा मनुष्य अन्न का और प्यासा जल का पात्र है। इसप्रकार प्रत्येक पुरूष के लिये दान के भिन्न-भिन्न पात्र होते हैं। प्रिये! चोर, व्यभिचारी, नपुंसक, हिंसक, मर्यादा-भेदक और लोगों के कार्य में विघ्न डालने वाले अन्यान्य पुरूष सब प्रकार से दान में वर्जित हैं अर्थात् उन्हें दान नहीं देना चाहिये। देवि! दूसरों का वध या चोरी करने से मनुष्यों को जो धनमिलता है, निर्दयता तथा धूर्तता करने से जो प्राप्त होता है, अधर्म से, धनविषयक मोह से तथा बहुत से प्राणियों की जीविका का अवरोध करने से जो धनप्राप्त होता है, वह अत्यन्त निन्दित है। भामिनि! ऐसे धन से किये हुए धर्म को निष्फल समझो। अतः शुभ की इच्छा रखने वाले पुरूष को न्यायतः प्राप्त हुए धन के द्वारा ही दान करना चाहिये। जो-जो अपने को प्रिय लगे, उसी-उसी वस्तु का सदा दान करना चाहिये, यही मर्यादा है। इस प्रयत्न या चेष्टा को ही उपक्रम समझो। यह दाताओं के लिये परम हितकारक है। दान का सुयोग्य पात्र ब्राह्मण यदि दूर का निवासी हो तो उसके पास जाकर उसे प्रसन्न करके दाता इस प्रकार दान दे, जिससे वह संतुष्ट हो जाय।। यह दान की श्रेष्ठ विधि है। दानपात्र को जो अपने घर बुलाकर दान दिया जाता है, वह मध्यम श्रेणी का दान है। प्रिये! पहले पात्रता का ज्ञान प्राप्त करके फिर उस सुपात्र ब्राह्मण को घर बुलावे। उसके सामने अपना दानविषयक विचार प्रस्तुत करे। पश्चात् स्वयं ही स्नान आदि से पवित्र हो आचमन करके श्रद्धापूर्वक अभीष्ट वस्तु का दान करे। याचकों को सामने पाकर उन्हें सम्मानपूर्वक अपनाना और देश-काल के अनुसार दान देना चाहिये। ऐश्वर्य की इच्छा रखने वाले पुरूषों को चाहिये कि वे दूसरे अपात्र पुरूषों को भी आवश्यकता होने पर अन्न-वस्त्र आदि का दान करे। पात्रों की परीक्षा करके दाता यदि दान की मात्रा अपनी शक्ति से भी अधिक करे तो वह उत्तम दान है। यथाशक्ति किया हुआ दान मध्यम है और तीसरा अधम श्रेणी का दान है, जो अपनी शक्ति के अनुरूप न हो। पहले जैसा बताया गया है, उसी प्रकार दान देना चाहिये। पुण्य क्षेत्रों में तथा पुण्य के अवसरों पर जो कुछ दिया जाता है, उसे देश और काल के गौरव से अत्यन्त शुभकारक समझो। उमा ने पूछा-प्रभो! पवित्रतम देश और काल क्या है? यह मुझे बताइये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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