महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-56
पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
मोक्ष धर्म की श्रेष्ठता प्रतिपादन,मोक्ष साधक ज्ञानकी प्राप्ति का उपाय और मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
उमा ने कहा- देवदेव! कालसूदन शंकर! आपको नमस्कार है। आपकी कृपा से मैंने अनेक प्रकार के धर्म सुने। अब यह बताइये कि सम्पूर्ण धर्मों से श्रेष्ठ, सनातन, अटल और अविनाशी धर्म क्या है? नारदजी ने कहा- देवी पार्वती के इस प्रकार पूछने पर पिनाकधारी महादेवजी ने सूक्ष्म अध्यात्मभाव से युक्त मधुर वाणी में इस प्रकार कहा। श्रीमहेश्वर बोले- महाभागे! तुमने न्यायतः सुनने की निश्चित इच्छा प्रकट की है, प्रिये! तुम मुझसे जो पूछती हो, यही तुम्हारा विशिष्ट गुण है। सर्वत्र स्वर्गलोकरूपी फल के आश्रयभूत धर्म का विधान किया गया है। धर्म के बहुत से द्वार हैं और उसकी कोई क्रिया यहाँ निष्फल नहीं होती। शुचिस्मिते! जो-जो जिस-जिस विषय में निश्चय को प्राप्त होता है, वह-वह उसी-उसी को धर्म समझता है, दूसरे को नहीं। देवि! अब तुम संक्षेप से परम उत्तम मोक्ष-द्वार का वर्णन सुनो। यही सब धर्मों में उत्तम, शुभ और अविनाशी है।। देवि! मोक्ष से उत्तम कोई तत्व नहीं है और मोक्ष से श्रेष्ठ कोई गति नहीं है। ज्ञानी पुरूष मोक्ष को कभी निवृत्त न होने वाला, श्रेष्ठ एवं आत्यन्तिक सुख मानते हैं।। देवि! इसमें जरा, मृत्यु, शोक अथवा दुख नहीं है। वह सर्वोत्तम अचिन्त्य परम सुख है।। विद्वान पुरूष मोक्षज्ञानको सब ज्ञानों में उत्तम मानते हैं। ऋषि ओर देवसमुदाय उसे परमपद कहते हैं। नित्य, अविनाशी, अक्षोभ्य, अजेय, शाश्वत और शिवस्वरूप वह मोक्षपद देवताओं और असुरों के लिये भी स्पृहणीय है। ज्ञानी पुरूष उसमें प्रवेश करते हैं। यह संसारआदि और अन्त में दुखमय कहा गया है। यह शोक, व्याधि, जरा और मृत्यु के दोषों से युक्त है। जैसे आकाश में नक्षत्रगण बारंबार आते और निवृत्त हो जाते हैं, उसी प्रकार ये जीव लोक में बारंबार लौटते रहते हैं। शुभलक्षणे! उसके मोक्ष का यह मार्ग सुनो। ब्रह्माजी से लेकर स्थावर वृक्षों तक जो संसार बताया गया है, इसमें सभी प्राणी बारंबार लौटते हैं। वहाँ संसार-चक्र का ज्ञान के द्वारा मोक्ष देखा जाता है। अध्यात्मतत्व को अच्छी तरह समझ लेना ही ज्ञान कहलाता है। प्रिये! उस ज्ञान को ग्रहण करने का जो उपाय है तथा ज्ञानी का जो आचार है, उसका मैं यथावत् रूप से वर्णन करूँगा। तुम एकचित्त होकर इसे सुनो। ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय पहले घर में स्थित रहकर सब प्रकार के ऋणों से उऋण हो अन्त में उन घरों का परित्याग कर दे। इस तरह गार्हस्थ्य-आश्रम को त्याग कर वह निश्चितरूप से वन का आश्रय ले। वन में गुरू की आज्ञा ले विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण करे और दीक्षा पाकर यथोचित रीति से अपने सदाचार का पालन करे। तदनन्तर गुरू से मोक्षज्ञान को ग्रहण करे और अनिन्द्य आचरण से रहे। मोक्ष भी दो प्रकार का है- एक सांख्य-साध्य और दूसरा योग-साध्य। ऐसा शास्त्र का कथन है। पचीस तत्वों का ज्ञान सांख्य कहलातेा है। अणिमा आदि ऐश्वर्य औरदेवताओं के समान रूप- यह योग शास्त्र का निर्णय है। इन दोनों में से किसी एक ज्ञान का शिष्यभाव से श्रवण करे। न तो असमय में, न गेरूआ वस्त्र धारण किये बिना, न एक वर्ष तक गुरू की सेवा में रहे बिना, न सांख्य या योग में से किसी को अपनाये बिना और न श्रद्धा के बिना ही गुरू का स्नेहपूर्वक उपदेश ग्रहण करे। जो सर्वत्र समान भाव रखते हुए सर्दी-गर्मी और हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वों को सहन करे, वही मुनि है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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