महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-60
पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम(145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
मोक्ष धर्म की श्रेष्ठता प्रतिपादन,मोक्ष साधक ज्ञानकी प्राप्ति का उपाय और मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
तभी जैसे जंगल में बाघ आकर सहसा किसी पशु को दबोच लेता है, उसी प्रकार मौत उसे उठा ले जाती है। जन्म, मृत्यु और जरा-सम्बन्धी दुखों से सदा आक्रान्त होकर संसार में मनुष्य पकाया जा रहा है, तो भी वह पाप से उद्विग्न नहीं हो रहा है। उमा ने पूछा- भगवन्! मनुष्यों की वृद्धावस्था और मृत्यु किस उपाय से निवृत्त होती है? यदि इसका कोई उपाय है तो यह मुझे बताइये, विलम्ब न कीजिये। महान् तप, कर्म, शास्त्रज्ञान अथवा रासायनिक प्रयोग- किस उपाय से मनुष्य जरा और मृत्यु को लाँघ सकता है? श्रीमहेश्वर ने कहा- महाभागे! ऐसी बात नहीं होती। भामिनि! तुम यह जान लो कि सम्पूर्ण संसार में मोक्ष के सिवा अन्यत्र जरा और मृत्यु की निवृत्ति नहीं होती। आत्मा की मुक्ति के बिना मनुष्य न तो धन से, न राज्य से और न श्रेष्ठ तपस्या से ही मृत्यु को लाँघ सकता है। सहस्त्रों अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ भी मोक्ष की उपलब्धि हुए बिना जरा और मृत्यु को नहीं लाँघ सकते। ऐश्वर्य, धन-धान्य, विद्यालाभ, तप और रसायन प्रयोग- ये कोई भी जरा और मृत्यु के पार नहीं जा सकते। देवता, दानव, गन्धर्व, किन्नर, नाग तथा राक्षसों को भी काल अपने वश में कर लेता है। कोई भी काल की पहुँच से परे नहीं है। गये हुए दिन, मास और रात्रियाँ फिर नहीं लौटती हैं। यह जीवात्मा उस निरन्तर चालू रहने वाले अटल और अविनाशी मार्ग को ग्रहण करता है। सरिताओं के स्त्रोत की भाँति बीतती हुई आयु के दिन वापस नहीं लौटते हैं। दिन और रातों में व्याप्त हुई मनुष्यों की आयु लेकर काल यहाँ से चल देता है। अक्षय सूर्य सम्पूर्ण प्राणियों के जीवन को क्षीण करता हुआ अस्त होता और पुनः उदय होता रहता है। एक-एक रात बीतने पर आयु बहुत थोड़ी होती चली जाती है। जैसे थाह जल में रहने वाला मत्स्य सुखी नहीं रहता, उसी प्रकार जिसकी आयु क्षीण होती जा रही है, उस परिमित आयु वाले पुरूष को कुमारावस्था का क्या सुख है? शरीर की मृत्यु निश्चित और अटल है। सब लोक यहाँ क्षणभर ठहरकर पुनः काल के अधीन हो जाते हैं। यदि समस्त देहधारी प्राणी न मरें और न बूढ़े हों तो न उन्हें अनिष्ट की प्राप्ति हो और न शोक की ही समस्त प्राणियों के असावधान रहने पर भी काल सदा सावधान रहता है। उस सावधान काल के आश्रय में आया हुआ कोई भी प्राणी बच नहीं सकता। कल का कार्य आज ही कर डाले, जिसे अपरान्ह में करना हो उसे पूर्वान्ह में ही पूरा कर डाले। कौन उस स्थान को जानता है, जहाँ उस पर मृत्यु की दृष्टि नहीं पड़ी होगी। अविवेकी मनुष्य यह सोचता रहता है कि आगामी बरसात में यह कार्य करूँगा और गर्मी तथा वसन्त ऋतु में अमुक कार्य आरम्भ करूँगा, परंतु उसमें जो मौत विघ्न बनकर खड़ी रहती है, उसकी ओर उसका ध्यान नहीं जाता है। ‘मेरे पास यह हो जाय, वह हो जाय’ इस प्रकार मन-ही-मन मनुष्य मनसूबे बाँधा करता है। उसकी कामनाएँ अप्राप्त ही रह जाती हैं और वह मृत्यु की ओर खिंचता चला जाता है। काल के बन्धन में बँधकर प्रतिदिन जीर्ण होते और विषम-मार्ग में भटकते हुए प्राणियों का इस जीवन पर क्या विश्वास हो सकता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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