महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-62

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पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

सांख्य ज्ञान का प्रतिपादन करते हुए अव्यक्तादि चौबीस तत्वों की उत्पति आदि का वर्णन

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-62 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमहेश्वर ने कहा- शुचिस्मिते! अब मैं तुमसे सांख्यज्ञान का यथावत् वर्णन करूँगा, जिसे जानकर मनुष्य फिर संसार-बन्धन में नहीं पड़ता। संन्यासकुशल सांक्ष्यज्ञानी ज्ञान से ही मुक्त हो जाते हैं। वे घोर शारीरिक तप को व्यर्थ बताते हैं। पचीस तत्वों का ज्ञान ही सांक्ष्यज्ञान माना गया है। मूल प्रकृति को अव्यक्त कहते हैं, अव्यक्त से महत्तत्व की उत्पत्ति होती है। महत्तत्व से अहंकार प्रकट होता है और अहंकार से पाँच तन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है। तन्मात्राओं से दस इन्द्रियों और एक मन की उत्पत्ति होती है। उनसे पाँच भूत प्रकट होते हैं और पाँच भूतों से इस शरीर का निर्माण होता है। यही क्षेत्र का संक्षेप स्वरूप है। इसी को चौबीस तत्वों का समुदाय कहते हैं। इनमें पुरूष की भी गणना कर लेने पर कुल पचीस तत्व बताये गये हैं। सत्व, रज और तम- ये तीन प्रकृतिजनित गुण हैं। प्रकृति इन तीनों आत्मज गुणों से सम्पूर्ण लोक की सृष्टि करती है। इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, स्थूल शरीर, चेतना और धृति- इन्हें मनीषी पुरूषों को प्रकृति के विकार जानना चाहिये। इन सबका लक्षण और आरम्भ से ही पृथक्-पृथक् विकल्प मैं विस्तारपूर्वक बताऊँगा, उसकी व्याख्या सुनो। नित्य, एक, अत्यन्त, सूक्ष्म, व्यापक, क्रियाहीन, हेतुरहित और सम्पूर्ण इन्द्रियों द्वारा अग्राह्य होना- यह अव्यक्त का लक्षण है। अव्यक्त, प्रकृति, मूल, प्रधान, योनि और अविनाशी- इन पर्यायवायी शब्दों द्वारा अव्यक्त के ही नाम बताये जाते हैं। वह अव्यक्त अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण अनिर्देश्य है- उसका वाणी द्वारा कोई संकेत नहीं किया जा सकता। वह ‘सत’ कहलाता है। सम्पूर्ण जगत् का मूल वही है और सृष्टि का मूल भी उसी को बताया गया है। सत्व आदि जो प्राकृत गुण हैं, उनको बता रहा हूँ। सुख, संतोष, प्रकाश- ये तीन सात्विक गुण हैं। राग-द्वेष, सुख-दुख तथा उद्दण्डता- ये रजोगुण के गुण हैं। प्रकाश का अभाव, भय, मोह और आलस्य को तमोगुण के गुण समझो। श्रद्धा, हर्ष, विज्ञान, असम्मोह, दया और धैर्य- ये भाव सत्वगुण के बढ़ने पर बढ़ते हैं और तमोगुण के बढ़ने पर इनके विपरीत भाव अश्रद्धा आदि की वृद्धि होती है। काम, क्रोध, मानसिक संताप, लोभ, मोह (आसक्ति) तथा मिथ्याभाषण- ये सारे दोष रजोगुण की वृद्धि होने पर बढ़ते हैं। विषाद, संशय, मोह, आलस्य, निद्रा, भय- ये तमोगुण की वृद्धि होने पर बढ़ते हैं। इस प्रकार ये तीनों गुण बारंबार परस्पर बढ़ते हैं और एक-दूसरे से अभिभूत होने पर सदा ही क्षीण होते हैं। इनमें शरीर अथवा मन से जो प्रसन्नतायुक्त भाव हो, उसे सात्विक भाव है- ऐसा माने और अन्य भावों की उपेक्षा कर दे। जब चित्त में क्षोभ उत्पन्न करने वाला संतापयुक्त भाव हो, तब उसे रजोगुण की प्रवृत्ति माने। जब मोहयुक्त और विषद उत्पन्न् करने वाला भाव अतक्र्य और अज्ञातरूप से प्रकट हो, तब उसे तमोगुण का कार्य समझना चाहिये। धर्म सात्विक है, धन राजस है और काम तामस बताया गया है। इस प्रकार त्रिवर्ग में क्रमशः तीनों गुणों की स्थिति संक्षेप में बतायी गयी है। ब्रह्म आदि देवताओं की जो सृष्टि है, वह सात्विकी बतायी जाती है। मनुष्यों की राजसी सृष्टि है और तिर्यग्योनि तामसी कही गयी है। सत्वगुण में स्थित रहने वाले पुरूष ऊर्ध्वलोक (स्वर्ग आदि) में जाते है। रजोगुणी पुरूष मध्यलोक (मनुष्य योनि) में स्थित होते हैं और तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्य आदि में स्थित हुए तामस पुरूष अधोगति को- कीट-पशु आदि नीच योनियों को तथा नरक आदि को प्राप्त होते हैं।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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