महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-8
पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
अहिंसा की और इन्द्रिय-संयम की प्रशंसा तथा दैव की प्रधानता
उमा ने कहा- सर्वदेववन्दित देवाधिदेव महादेव! तब मैं धर्म के रहस्यों को सुनना चाहती हूँ। श्रीमहेश्वर ने कहा- अहिंसा परम धर्म है। अहिंसा परम सुख है। सम्पूर्ण धर्मशास्त्रों में अहिंसा को परमपद बताया गया है। वरारोहे! देवताओं और अतिथियों की सेवा, निरन्तर धर्मशीलता, वेदाध्ययन, यज्ञ, तप, दान, दम, गुरू और आचार्य की सेवा तथा तीर्थों की यात्रा- ये सब अहिंसा धर्म की सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं हैं। यह मैंने तुम्हें धर्म का परम गुह्य रहस्य बताया है, जिसकी शास्त्रों में भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी है। जो अपनी इन्द्रियों का निरोध करता है, वही सुखी है और वही विद्वान् है। इन्द्रियों के निरोध से, दान से और इन्द्रिय-संयम से मनुष्य मन में जिस-जिस वस्तु की इच्छा करता है, वह सब पा लेता है। महाभागे! जिस-जिस ओर से भारी हिंसा की सम्भावना हो, उससे तथा मद्य और मांस से मनुष्य को निवृत्त हो जाना चाहिये। इससे हिंसा की सम्भावना बहुत कम हो जाती है। निवृत्ति परम धर्म है, निवृत्ति परम सुख है, जो मन से विषयों की ओर से निवृत्त हो गये हैं, उन्हें विशाल धर्मराशि की प्राप्ति होती है। इसमें संदेह नहीं कि धर्म और अधर्म पहले मन में ही आते हैं। मन से ही मनुष्य बँधता है और मन से ही मुक्त होता है। यदि मन को वश में कर लिया जाय, तब तो स्वर्ग मिलता है और यदि उसे खुला छोड़ दिया जाय तो नरक की प्राप्ति अवश्यम्भावी है। जीव अपने पूर्वकृत कर्म के ही फल से पशु-पक्षी एवं कीट आदि होते हैं। अपने-अपने कर्मों से बँधे हुए प्राणी ही भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेते हैं। जो जीव जन्म लेता है, उसकी मृत्यु पहले ही पैदा हो जाती है। मनुष्य ने पूर्व जन्म में जैसा कर्म किया है, तदनुसार ही उसे सुख या दुःख प्राप्त होता है। प्राणी प्रमाद में पड़कर भले ही सो जायँ, परंतु उनका प्रारब्ध या दैव प्रमादशून्य- सावधान होकर सदा जागता रहता है। उसका न कोई प्रिय है, न द्वेषपात्र है और न कोई मध्यस्थ ही है। काल समस्त प्राणियों के प्रति समान है। वह अवसर की प्रतीक्षा करता रहता है। जिनकी आयु समाप्त हो गयी है, उन्हीं प्राणियों का वह संहार करता है। वही समस्त देहधारियेां का जीवन है।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख