महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 श्लोक 20-40

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पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद

गुरू के आने पर पे्रमपूर्वक उनकी पूजा नहीं करते- उन्हें गुरूवत् सम्मान नहीं देना चाहते, अभिमान और लोभ के वशीभूत होकर वे सम्माननीय मनुष्यों का अपमान और बड़े-बूढ़ों का तिरस्कार करते हैं। देवि! ऐसा करने वाले सभी मनुष्य नरकगामी होते हैं। बहुत वर्षों के बाद जब वे उस नरक से छुटकारा पाते हैं तो श्वपाक और पुल्कस आदि निन्दित और मूढ़ मनुष्यों के कुत्सित कुल में जन्म लेते हैं। गुरूजनों और वृद्धों का तिरस्कार करने वाले वे अधम मानव चाण्डालों के उन्हीं निन्दित कुलों में उत्पन्न होते हैं। देवि! जो न तो उद्दण्ड है, न अभिमानी है तथा जो देवताओं और द्विजों की पूजा करता है, संसार के लोग जिसे पूज्य मानते हैं, जो बड़ों को प्रणम करने वाला, विनयी, मीठे वचन बोलने वाला, सब वर्णों का प्रिय और सम्पूर्ण प्राणियों का हित करने वाला है, जिसका किसी के साथ द्वेष नहीं है, जिसका मुख प्रसन्न और स्वभाव कोमल है, जो सदा स्वागतपूर्वक स्नेहभरी वाणी बोलता है, किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करता तथा सबका यथायोग्य सत्कारपूर्वक पूजन करता रहता है, जो मार्ग देने योग्य पुरूषों को मार्ग देता और गुरू का उसके योग्य समादर करता है, अतिथियों को आमन्त्रित करके उनकी सेवा में लगा रहता तथा स्वयं आये हुए अतिथियों का भी पूजन करता है, ऐसा मनुष्य स्वर्गलोक में जाता है। तत्पश्चात् मानव-योनि में आकर विशिष्ट कुल में जन्म लेता है। उस जन्म में वह महान् भोगों और सम्पूर्ण रत्नों से सम्पन्न हो सुयोग्य ब्राह्मणों को यथायोग्य दान देता और धर्मानुष्ठान में तत्पर रहता है। वहाँ सब प्राणी उसका सम्मान करते हैं और सब लोग उसके सामने नतमस्तक होते हैं। इस प्रकार मनुष्य अपने कर्मों का फल सदा स्वयं ही भोगता है। धर्मात्मा मनुष्य सर्वदा उत्तम कुल, उत्तम जाति और उत्तम स्थान में जन्म धारण करता है। यह साक्षत् ब्रह्माजी के बताये हुए धर्म का मैंने वर्णन किया है। शोभने! जिस मनुष्य का आचरण क्रूरता से भरा हुआ है, जिससे समस्त जीवों को भय प्राप्त होता है, जो हाथ, पैर, रस्सी, डंडे ओर ढेले से मारकर, खम्भों में बाँधकर तथा घातक शस्त्रों का प्रहार करके जीवन-जन्तुओं को सताता है, छल-कपट में प्रवीण होकर हिंसा के लिये उन जीवों में उद्वेग पैदा करता है तथा उद्वेगजनक होकर सदा उन जन्तुओं पर आक्रमणकरता है, ऐसे स्वभाव और आचार वाले मनुष्य को नरक में गिरना पड़ता है। यदि वह कालचक्र के फेर से फिर मनुष्य योनि में आता है तो अनेक प्रकार की विघ्न-बाधाओं से कष्ट उठाने वाले अधम कुल में उत्पन्न होता है। देवि! ऐसा मनुष्य अपने ही किये हुए कर्मों के फल के अनुसार मनुष्यों में तथा जाति-बन्धुओं में नीच समझा जाता है और सब लोग उससे द्वेष रखते हैं। इसके विपरीत जो मनुष्य सब प्राणियों के प्रति दयादृष्टि रखता है, सबको मित्र समझता है, सबके ऊपर पिता के समान स्नेह रखता है, किसी के साथ वैर नहीं करता और इन्द्रियों को वश में किये रहता है, जो हाथ-पैर आदि को अपने अधीन रखकर किसी भी जीव को न तो उद्वेग में डालता और न मारता ही है, जिस पर सब प्राणी विश्वास करते हैं, जो रस्सी, डंडे, ढेले और घातक अस्त्र-शस्त्रों से प्राणियों को कष्ट नहीं पहुँचाता, जिसके कर्म कोमल एवं निर्दोष होते हैं तथा जो सदा ही दयापरायण होता है, ऐसे स्वभाव और आचरणवाला पुरूष स्वर्गलोक में दिव्य शरीर धारण करता है और वहाँ के दिव्य भवन में देवताओं के समान आनन्दपूर्वक निवास करता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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