महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 146 श्लोक 37-52
षट्चत्वारिंशदधिकशततम (146) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
जो पति की देवता के समान सेवा और परिचर्या करती हैं, पति के सिवा दूसरे किसी से हार्दिक प्रेम नहीं करती, कभी नाराज नहीं होती तथा उत्तम व्रत कापालन करती है, जिसका दर्शन पति को सुखद जान पड़ता है, जो पुत्र के मुख की भाँति स्वामी के मुख की ओर सदा निहारती रहती है तथा जो साध्वी एवं नियमित आहार का सेवन करने वाली है, वह स्त्री धर्मचारिणी कही गयी है। ‘पति और पत्नी को एक साथ रहकर धर्माचरण करना चाहिये।’ इस मंगलमय दाम्पत्य धर्म को सुनकर जो स्त्री धर्मपरायण हो जाती है, वह पति के समान व्रत का पालन करने वाली (पतिव्रता) है। साध्वी स्त्री सदा अपने पति को देवता के समान समझती है। पति और पत्नी का यह सहधर्म (साथ-साथ रहकर धर्माचरण करना) रूप धर्म परम मंगलमय है। जो अपने हृदय के अनुराग के कारण स्वामी के अधीन रहती है, अपने चित्त को प्रसन्न रखती है, देवता के समान पति की सेवा और परिचर्या करती है, उत्तम व्रता का आश्रय लेती है ओर पति के लिये सुखदायक सुन्दर वेष धारण किये रहती है, जिसका चित्त पति के सिवा और किसी की ओर नहीं जाता, पति के समक्ष प्रसन्नवदन रहने वाली वह स्त्री धर्मचारिणी मानी गयी है। जो स्वामी के कठोर वचन कहने या दोषपूर्ण दृष्टि से देखने पर भी प्रसन्नता से मुसकराती रहती है, वही स्त्री पतिव्रता है। जो सुन्दरी नारी पति के सिवा पुरूष नामधारी चन्द्रमा, सूर्य और किसी वृक्ष की ओर भी दृष्टि नहीं डालती, वही पातिव्रतधर्म का पालन करने वाली है। जो नारी अपने दरिद्र, रोगी, दीन अथवा रास्ते की थकावट से खिन्न हुए पति की पुत्र के समान सेवा करती है, वह धर्मफल की भागिनी होती है। जो स्त्री अपने हृदय को शुद्ध रखती, गृहकार्य करने में कुशल और पुत्रवती होती, पति से प्रेम करती और पति को ही अपने प्राण समझती है, वही धर्मफल पाने की अधिकारिणी होती है। जो सदा प्रसन्नचित्त से पति की सेवा-सुश्रूषा में लगी रहती है, पति के ऊपर पूर्ण विश्वास रखती और उसके साथ विनयपूर्ण बर्ताव करती है, वही नारी धर्म के श्रेष्ठ फल की भागिनी होती है। जिसके हृदय में पति के लिये जैसी चाह होती है, वैसी काम, भोग और सुख के लिये भी नहीं होती। वह स्त्री पातिव्रतधर्म की भागिनी होती है।जो प्रतिदिन प्रातःकाल उठने में रूचि रखती है, घरों के काम-काज में योग देती है, घर को झाड़-बुहारकर साफ रखती है और गोबर से लीप-पोतकर पवित्र बनाये रखती है, जो पति के साथ रहकर प्रतिदिन अग्निहोत्र करती है, देवताओं को पुष्प और बलि अर्पण करती है तथा देवता, अतिथि और पोष्यवर्ग को भोजन से तृप्त करके न्याय और विधि के अनुसार शेष अन्न का स्वयं भोजन करती है तथा घर के लोगों को हृष्ट-पुष्ट एवं संतुष्ट रखती है, ऐसी ही नारी सती-धर्म के फल से युक्त होती है। जो उत्तम गुणों से युक्त होकर सदा सास-ससुर के चरणों की सेवा में संलग्न रहती है तथा माता-पिता के प्रति भी सदा उत्तम भक्तिभाव रखती है, वह स्त्री तपस्यारूपी धन से सम्पन्न मानी गयी है। जो नारी ब्राह्मणों, दुर्बलों, अनाथों, दीनों, अन्धों और कृपणों (कंगालों) का अन्न के द्वारा भरण-पोषण करती है, वह पातिव्रतधर्म के पालन का फल पाती है।
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