महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 147 श्लोक 43-59
सप्तचत्वारिंशदधिकशततम (147) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
उन सर्वव्यापी परमेश्वर की पूजा करने से परम धर्म की सिद्धि होगी। वे महान् तेजस्वी देवता हैं। उन पुरूषसिंह श्रीकृष्ण ने प्रजा का हित करने की इच्छा से धर्म का अनुष्ठान करने के लिये करोड़ों ऋषियों की सृष्टि की है। भगवान के उत्पन्न किये हुए वे सनत्कुमार आदि ऋषि गन्धमादन पर्वत पर सदा तपस्या में संलग्न रहते हैं। अतः द्विजवरो! उन प्रवचन-कुशल, धर्मज्ञ वासुदेव को सदा प्रणाम करना चाहिये। वे भगवान नारायण हरि देवलोक में सबसे श्रेष्ठ हैं। जो उनकी वन्दना करता है, उसकी वे भी वन्दना करते हैं। जो उनका आदर करता है, उसका वे भी आदर करते हैं। इसी प्रकार अर्चित होने पर वे भी अर्चना करते और पूजित या प्रशंसित होने पर वे भी पूजाया प्रशंसा करते हैं। श्रेष्ठ ब्राह्मणों! जो प्रतिदिन उनका दर्शन करता है, उसकी ओर वे भी कृपादृष्टि करते हैं। जो उनका आश्रय लेता है, उसके हृदय में वे भी आश्रय लेते हैं तथा जो उनकी पूजा करता है, उसकी वे भी सदा पूजा करते हैं। उन प्रशंसनीय आदि देवता भगवान महाविष्णु का यह उत्तम व्रत है, जिसका साधु पुरूष सदा आचरण करते आये हैं । वे सनातन देवता हैं, अतः इस त्रिभुवन में देवता भी सदा उन्हीं की पूजा करते हैं। जो उनके अनन्य भक्त हैं, वे अपने भजन के अनुरूप ही निर्भय पद प्राप्त करते हैं। द्विजों को चाहिये कि वे मन, वाणी और कर्म से सदा उन भगवान को प्रणाम करें और यत्नपूर्वक उपासना करके उन देवकीनन्दन का दर्शन करें। मुनिवरो! यह मैंने आप लोगों को उत्त्म मार्ग बता दिया है। उन भगवान वासुदेव का सब प्रकार से दर्शन कर लेने पर सम्पूर्ण श्रेष्ठ देवताओं का दर्शन करना हो जायगा। मैं भी महावराहरूप धारण करने वाले उन सर्वलोक-पितामह जगदीश्वर को नित्य प्रणाम करता हूँ। हम सब देवता उनके श्रीविग्रह में निवास करते हैं। अतः उनका दर्शन करने से तीनों देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु और शिव) का दर्शन हो जाता है, इसमें संशय नहीं है। उनके बड़े भाई कैलास की पर्वतमालाओं के समान श्वेत कान्ति से प्रकाशित होने वाले हलधर और बलराम के नाम से विख्यात होंगे। पृथ्वी को धारण करने वाले शेषनाग ही बलराम के रूप में अवतीर्ण होंगे। बलदेवजी के रथ पर तीन शिखाओं से युक्त दिव्य सुवर्णमय तालवृक्ष ध्वज के रूप में सुशोभित होगा। सर्वलोकेश्वर महाबाहु बलरामजी का मस्तक बड़े-बड़े फनवाले विशालकाय सर्पों से घिरा हुआ होगा। उनके चिन्तन करते ही सम्पूर्ण दिव्य अस्त्र-शस्त्र उन्हें प्राप्त हो जायँगे। अविनाशी भगवान श्रीहरि ही अनन्त शेषनाग कहे गये हैं। पूर्वकाल में देवताओं ने गरूड़जी से यह अनुरोध किया कि ‘आप हमें भगवान शेष का अन्त दिखा दीजिये।’ तब कश्यप के बलवान् पुत्र गरूड़ अपनी सारी शक्ति लगाकर भी उन परमात्मदेव अनन्त का अन्त न देख सके। वे भगवान शेष बड़े आनन्द के साथ सर्वत्र विचरते हैं और अपने विशाल शरीर से पृथिवी को आलिंगनपाश में बाँधकर पाताल लोक में निवास करते हैं।
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