महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 63-68

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एकोनपन्चाशदधिकशततम (149) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर: एकोनपन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 63-68 का हिन्दी अनुवाद


465 स्वापनः- प्रलयकाल में समस्त प्राणियों को अज्ञाननिद्रा में शयन कराने वाले, 466 स्ववशः- स्वतन्त्र, 467 व्यापी- आकाश की भाँति सर्वव्यापी, 468 नैकात्मा- प्रत्येक युग में लोकोद्धार के लिये अनेक रूप धारण करने वाले, 469 नैककर्मकृत्- जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयरूप तथा भिन्न-भिन्न अवतारों में मनोहर लीलारूप अनेक कर्म करने वाले, 470 वत्सरः- सबके निवास स्थान, 471 वत्सलः- भक्तों के परम स्नेही, 472 वत्सी- वृन्दावन में बछड़ों का पालन करने वाले, 473 रत्नगर्भः- रत्नों को अपने गर्भ में धारण करने वाले समुद्ररूप, 474 धनेश्वरः- सब प्रकार के धनों के स्वामी। 475 धर्मगुप्- धर्म की रक्षा करने वाले, 476 धर्म-कृत्- धर्म की स्थापना करने के लिये स्वयं धर्म का आचरण करने वाले, 477 धर्मी- सम्पूर्ण धर्मों के आधार, 478 सत्- सत्यस्वरूप, 479 असत्-स्थूल जगत्स्वरूप, 480 क्षरम्- सर्वभूतमय, 481 अक्षरम्- अविनाशी, 482 अविज्ञाता- क्षेत्रज्ञ जीवात्मा को विज्ञाता कहते हैं, उनसे विलक्षण भगवान् विष्णु, 483 सहस्त्रांशुः- हजारों किरणों वाले सूर्यस्वरूप, 484 विधाता- सबको अच्छी प्रकार धारण करने वाले, 485 कृतलक्षणः- श्रीवत्स आदि चिन्हों को धारण करने वाले। 486 गभस्तिनेमिः- किरणों के बीच में सूर्यरूपसे स्थित, 487 सत्वस्थः- अन्तर्यामीरूप से समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में स्थित रहने वाले, 488 सिंहः- भक्त प्रहलाद के लिये नृसिंहरूप धारण करने वाले, 489 भूतमहेश्वरः- सम्पूर्ण प्राणियों के महान् ईश्वर, 490 आदिदेवः- सबके आदि कारण और दिव्यस्वरूप, 491 महादेवः- ज्ञानयोग और वेश्वर्य आदि महिमाओं से युक्त, 492 देवेशः- समस्त देवों के स्वामी, 493 देवभृद्गुरूः- देवों का विशेष रूप से भरण-पोषण करने वाले उनके परम गुरू। 494 उत्तरः- संसार-समुद्र से उद्धार करने वाले और सर्वश्रेष्ठ, 495 गोपतिः- गोपालरूप से गायों की रक्षा करने वाले, 496 गोप्ता- समस्त प्राणियों का पालन और रक्षा करने वाले, 497 ज्ञानगम्यः- ज्ञान के द्वारा जानने में आने वाले, 498 पुरातनः- सदा एकरस रहने वाले, सबके आदि पुराणपुरूष, 499 शरीरभूतभृत्- शरीर के उत्पादक पन्चभूतों का प्राणरूप से पालन करने वाले, 500 भोक्ता- निरतिशय आनन्दपुंज को भोगने वाले, 501 कपीन्द्रः- बंदरों के स्वामी श्रीराम, 502 भूरिदक्षिणः- श्रीरामादि अवतारों में यज्ञ करते समय बहुत सी दक्षिणा प्रदान करने वाले। 503 सोमपः- यज्ञों में देवरूप से और यजमानरूप से सोमरस का पान करने वाले, 504 अमृतपः- समुद्रमन्थन से निकाला हुआ अमृत देवों को पिलाकर स्वयं पीने वाले, 505 सोमः- ओषधियेां का पोषण करने वाले चन्द्रमारूप, 506 पुरूजित्- बहुतों को विजय लाभ करने वाले, 507 पुरूसत्तमः- विश्वरूप और अत्यन्त श्रेष्ठ, 508 विनयः- दुष्टों को दण्ड देने वाले, 509 जयः- सब पर विजय प्राप्त करने वाले, 510 सत्यसंधः- सच्ची प्रतिज्ञा करने वाले, 511 दाशार्हः- दाशार्हकुल में प्रकट होने वाले, 512 सात्वतां पतिः- यादवों के और अपने भक्तों के स्वामी। 513 जीवः- क्षेत्रज्ञरूप से प्राणों को धारण करने वाले, 514 विनयितासाक्षी- अपने शरणापन्न भक्तों के विनय- भाव को तत्काल प्रत्यक्ष अनुभव करने वाले, 515 मुकुन्दः- मुक्तिदाता, 516 अमितविक्रमः- वामनावतार में पृथ्वी नापते समय अत्यन्त विस्तृत पैर रखने वाले, 517 अम्भोनिधिः- जल के निधान समुद्रस्वरूप, 518 अनन्तात्मा- अनन्तमूर्ति, 519 महोदधिशयः- प्रलयकाल के महान् समुद्र में शयन करने वाले, 520 अन्तकः- प्राणियों का संहार करने वाल मृत्युस्वरूप।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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