महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 75-80
एकोनपन्चाशदधिकशततम (149) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
574 त्रिसामा- देवव्रत आदि तीन साम श्रुतियों द्वारा जिनकी स्तुति की जाती है- ऐसे परमेश्वर, 575 सामगः- सामवेद का गान करने वाले, 576 साम- सामवेदस्वरूप, 577 निर्वाणम्- परमशान्ति के निधान परमानन्दस्वरूप, 578 भेषजम्- संसार-रोग की ओषधि, 579 भिषक्- संसार रोग का नाश करने के लिये गीतारूप उपदेशामृत का पान कराने वाले परम वैद्य, 580 संन्यासकृत्- मोक्ष के लिये संन्यासाश्रम और संन्यासयोग का निर्माण करने वाले, 581 शमः- उपशमता का उपदेश देने वाले, 582 शान्तः- परम शान्तस्वरूप, 583 निष्ठा- सबकी स्थिति के आधार अधिष्ठानस्वरूप, 584 शान्तिः- परम शान्तिस्वरूप, 585 परायणम्- मुमुक्षु पुरूषों के परम प्राप्य-स्थान।। 75।। 586 शुभांगः- अति मनोहर परम सुन्दर अंगों वाले, 587 शान्तिदः- परम शान्ति देने वाले, 588 स्त्रष्टा- सर्ग के आदि में सबकी रचना करने वाले, 589 कुमुदः- पृथ्वी पर प्रसन्नतापूर्वक लीला करने वाले, 590 कुवलेशयः- जल में शेषनाग की शय्या पर शयन करने वाले, 591 गोहितः- गोपालरूप से गायों का और अवतार धारण करके भार उतारकर पृथ्वी का हित करने वाले, 592 गोपतिः- पृथ्वी के और गायों के स्वामी, 593 गोप्ता- अवतार धारण करके सबके सम्मुख प्रकट होते समय अपनी माया से अपने स्वरूप को आच्छादित करने वाले, 594 वृषभाक्षः- समस्त कामनाओं की वर्षा कने वाली कृपादृष्टि से युक्त, 595 वृषप्रियः- धर्म से प्यार करने वाले। 596 अनिवर्ती- रणभूमि में और धर्मपालन में पीछे न हटने वाले, 597 निवृत्तात्मा- स्वभाव से ही विषय-वासनारहित नित्य शुद्ध मनवाले, 598 संक्षेप्ता- विस्तृत जगत् को संहारकाल में संक्षिप्त यानी सूक्ष्म करने वाले, 599 क्षेमकृत्- शरणागत की रक्षा करने वाले, 600 शिवः- स्मरणमात्र से पवित्र करने वाले कल्याणस्वरूप, 601 श्रीवत्सवक्षाः- श्रीवत्स नामक चिन्ह को वक्षःस्थल में धारण करने वाले, 602 श्रीवासः- श्रीलक्ष्मीजी के वासस्थान, 603 श्रीपतिः- परमशक्तिरूपा श्रीलक्ष्मीजी के स्वामी, 604 श्रीमतां वरः- सब प्रकार की सम्पत्ति और ऐश्वर्य से युक्त ब्रह्मादि समस्त लोकपालों से श्रेष्ठ। 605 श्रीदः- भक्तों को श्री प्रदान करने वाले, 606 श्रीशः- लक्ष्मी के नाथ, 607 श्रीनिवासः- श्रीलक्ष्मीजी के अन्तःकरण में नित्य निवास करने वाले, 608 श्रीनिधिः- समस्त श्रियों के आधार, 609 श्रीविभावनः- सब मनुष्यों के लिये उनके कर्मानुसार नाना प्रकार के ऐश्वर्य प्रदान करने वाले, 610 श्रीधरः- जगज्जननी श्रीको वक्षःस्थल में धारण करने वाले, 611 श्रीकरः- स्मरण, स्तवन और अर्चन आदि करने वाले भक्तों के लिये श्रीका विस्तार करने वाले, 612 श्रेयः- कल्याणस्वरूप 613 श्रीमान्-सब प्रकार की श्रियों से युक्त, 614 लोकत्रयाश्रयः- तीनों लोकों के आधार। 615 स्वक्षः- मनोहर, कृपाकटाक्ष से युक्त परम सुन्दर आँखों वाले, 616 स्वंगः- अतिशय कोमल, परम सुन्दर, मनोहर अंगों वाले, 617 शतानन्दः- लीलाभेद से सैकड़ों विभागों में विभक्त आनन्दस्वरूप, 618 नन्दिः- परमानन्दस्वरूप, 619 ज्योतिर्गणेश्वरः- नक्षत्रसमुदायों के ईश्वर, 620 विजितात्मा- जिते हुए मनवाले, 621 अविधेयात्मा- जिनके असली स्वरूप का किसी प्रकार भी वर्णन नहीं किया जा सके- ऐसे अनिर्वचनीयस्वरूप, 622 सत्कीर्तिः- सच्ची कीर्तिवाले, 623 छिन्नसंशयः- सब प्रकार के संशयों से रहित। 624 उदीर्णः- सब प्राणियों से श्रेष्ठ, 625 सर्व- तश्चक्षुः- समस्त वस्तुओं को सब दिशाओं में सदा-सर्वदा देखने की शक्तिवाले, 626 अनीशः- जिनका दूसरा कोई शासक न हो- ऐसे स्वतन्त्र, 627 शाश्वतस्थिरः- सदा एकरस स्थिर रहने वाले, निर्विकार, 628 भूशयः- लंकागमन के लिये मार्ग की याचना करते समय समुद्रतट की भूमि पर शयन करने वाले, 629 भूषणः- स्वेच्छा से नानाअवतार लेकर अपने चरण-चिन्हों से भूमि की शोभा बढ़ाने वाले, 630 भूतिः- समस्त विभूतियों के आधारस्वरूप, 631 विशोकः- सब प्रकार से शोकरहित, 632 शोकनाशनः- स्मृतिमात्र से भक्तों के शोक का समूल नाश करने वाले।
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