महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 43-57

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चतुर्दश (14) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 43-57 का हिन्दी अनुवाद

गुरूजनों की आज्ञा पाकर मैंने गरुड़ का चिन्‍तन किया । उसने (आकर) मुझे हिमालय पर पहुंचा दिया । वहां पहुंचकर मैंने गरुड़ को विदा कर दिया। मैंने उस श्रेष्‍ठ पर्वत पर वहां अद्भूत भाव देखे । मुझे वहां का स्‍थान तपस्‍या के लिये अद्भूत, उत्‍तम ओर श्रेष्‍ठ क्षेत्र दिखायी दिया। वह व्‍याघ्र पाद के पुत्र महात्‍मा उपमन्‍यु का दिव्‍य आश्रम था, जो ब्राहृी शोभा से सम्‍पन्‍न तथा देवताओं और गन्‍धर्वों द्वारा सम्‍मानित था। धुव, ककुभ (अर्जुन), कदम्‍ब, नारियल, कुरबक, केतक, जामुन, पाटल, बड़, वरूणक, वत्‍सनाभ, बिल्‍व, सरल, कपित्‍थ, प्रियाल, साल, ताल, बेर, कुन्‍द, पुन्‍नाग, अशोक, आम्र, अतिमुक्‍त, महुआ, कोविदार, चम्‍पा तथा कटहल आदि बहुत-से फल-फूल देने वाले विविध वन्‍य वृक्ष उस आश्रम की शोभा बढ़र रहे थे । फूलों, गुल्‍मों और लताओं से वह व्‍याप्‍त था । केले के कुंज उसकी शोभा को और भी बढ़ा रहे थे। नाना प्रकार के पक्षियों के खाने योग्‍य फल और वृक्ष उस श्रम के अलंकार थे । यथास्‍थान रखी हुई भस्‍मराशि से उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। रूरू, वानर, शार्दूल, सिंह, चीते, मृग, मयुर, बिल्‍ली, सर्प, विभिन्‍न जाति के मृगों के झुंड, भैंस तथा रीछों से उस आश्रम का निकटवर्ती वन भरा हुआ था। जिनके मस्‍तक से पहली बार मदकी धारा फूटकर बही थी, ऐसे हा‍थी वहां के उपवन की शोभा बढ़ाते थे । हर्ष में भरे हुए नाना प्रकार के विहंगम वहां के वृक्षों पर बसेरे लेते थे । अनेकानेक वृक्षों के विचित्र वन सुन्‍दर फूलों से सुशोभित हो मेघों के समान प्रतीत होते थे और उन सबके द्वारा उस आश्रम की अनुपम शोभा हो रही थी। सामने से नाना प्रकार के पुष्‍पों के परागपुंज से पूरित तथा हाथियों के मद की सुगन्‍ध से सुवासित मन्‍द-मन्‍द अनुकूल वायु आ रही थी, जिसमें दिव्‍य रमणियों के मधुर गीतों की मनोरम ध्‍वनि विशेषरूप से व्‍याप्‍त थी। वीर ! पर्वतशिखरों से झरते हुए झरनों की झर-झर ध्‍वनि, विहंगमों के सुन्‍दर कलरव, हाथियों की गर्जना, किन्‍नरों के उदार (मनोहर) गीत तथा सामगान करने वाले सामवेदी विद्वानों के मंगलमय शब्‍द उस वन-प्रान्‍त को संगीत मय बना रहे थे। जिसके विषय में दूसरे लोग मन से सोच भी नहीं सकते, ऐसी अचिन्‍त्‍य शोभा से सम्‍पन्‍न वह पर्वतीय भाग अनेकानेक सरोवर से अलंकृत तथा फूलों से आच्‍छादित विशाल अग्निशालाओं द्वारा विभूषित था। नरेश्‍वर ! पुण्‍सलिला जाहृनीव सदा उस क्षेत्र की शोभा बढ़ाती हुई मानो उसका सेवन करती थीं । अग्नि के समान तेजस्‍वी तथा धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ अनेकानेक महात्‍माओं से वह स्‍थान विभूषित था। वहां चारों और श्रेष्‍ठ ब्रह्माण निवास करते थे । उनमें से कुछ लोक केवल वायु पीकर रहते थे । कुछ लोग जल पीकर जीवन धारण करते थे । कुछ लोग निरन्‍तर जप में संलग्‍न रहते थे । कुछ साधक मैत्री-मुदिता आदि साधनाओं द्वारा अपने चित्‍त का शोधन करते थे । कुछ योगी निरन्‍तर ध्‍यानमग्‍न रहते थे । कोई अग्निहोत्र का धूआं, कोई गरम-गरम सूर्य की किरणें और कोई दूध पीकर रहते थे। कुछ लोग गोसेवा का व्रत लेकर गौओं के ही साथरहते और विचरते थे । कुछ लोग खाद्य वस्‍तुओं को पत्‍थर से पीसकर खाते थे और कुछ लोग दांतों से ही ओखली-मुसली का काम लेते थे। कुछ लोग किरणों और फेनों का पान करते थे तथा कितने ही ऋषि मृगचर्या का व्रत लेकर मृगों के ही साथ रहते और विचरते थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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