महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 80-96
चतुर्दश (14) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
भगवान शंकर से उसको वर मिला था । उस अत्यंत बलशाली बुद्धिमान ग्रह के अंग में चक्र और वज्र-जैसे सैकड़ों शस्त्र भी काम नहीं देते थे। जब उस बलवान ग्रह ने देवताओं को सताना आरम्भ कर दिया तब देवताओं ने भी भगवान शंकर से वर पाये हुए उन असुरेन्द्रों को बहुत पीटा । (इस प्रकार उनमें दीर्घकालक तक युद्ध होता रहा)। इसी तरह विद्युत्प्रभ नामक दैत्य पर भी संतुष्ट होकर रुद्र देव ने उसे तीनों लोकों का आधिपत्य प्रदान कर दिया । इस प्रकार वह एक लाख वर्षों तक सम्पूर्ण लोकों का अधीश्वर बना रहा। भगवान ने उसे यह भी वर दिया था कि 'तुम मेरे नित्य पार्षद हो जाओगे' साथ ही उन प्रभु ने उस सहस्त्र अयुत (एक करोड़) पुत्र प्रदान किये। अजन्मा भगवान शिव ने उसे राज करने के लिये कुशद्वीप दिया था । इसी प्रकार भगवान ब्रह्मा ने एक समय शतमुख नामक महान असुर की सृष्टि की थी, जिसने सौ वर्ष से अधिक काल तक अग्नि में अपने ही मांस की आहुति दी थी। उससे संतुष्ट होकर भगवान शंकर ने पूछा - 'बताओ, मैं तुम्हारा कौन-सा मनोरथ पूर्ण करूं?' तब शतमुख ने उनसे कहा - 'सुरश्रेष्ठ! मुझे अद्भभुत योगशक्ति प्राप्त हो। साथ ही आप मुझे सदा बना रहने वाला बल प्रदान कीजिए।' उसकी वह बात सुनकर शक्तिशाली भगवान ने 'तथास्तु' कहकर उसे स्वीकार कर लिया । इसी तरह पूर्वकाल में स्वयम्भू के पुत्र क्रतु ने पुत्र-प्राप्ति के लिये तीन सौ वर्षों तक योग के द्वारा अपने आप को भगवान शिव के चिन्तन में लगा रखा था, अत: क्रतु को भी भगवान शंकर ने उन्हीं के समान एक हजार पुत्र प्रदान किये। श्रीकृष्ण! देवता जिनकी महिमा का गान करते हैं, उन योगेश्वर शिव को आप भली भांति जानते हैं, इसमें संशय नहीं है । याज्ञवल्क्य नाम के विख्यात पर धर्मात्मा ऋर्षि ने महादेव जी की आराधना करके अनुपम यश प्राप्त किया । पराशर जी के पुत्र मुनिवर वेदव्यास तो योग के स्वरूप ही हैं । उन्होंने भी शंकर जी की आराधना करके वह महान यश पा लिया, जिसकी कहीं तुलना नहीं है। कहते हैं, पूर्वकाल में किसी समय इन्द्र ने बालखिल्य नामक ऋषियों का अपमान कर दिया था । उन ऋषियों ने कुपित होकर तपस्या की और उसके द्वारा भगवान रुद्र को संतुष्ट किया । तब सुरश्रेष्ठ विश्वनाथ शिव ने प्रसन्न होकर उनसे कहा - 'तुम अपनी तपस्या के बल से गरुड़ को उत्पन्न करोगे, जो इन्द्र का अमृत छीन लायेगा।' पहले की बात है, महादेव जी के रोष से जल नष्ट हो गया था । देवताओं ने, जिसके स्वामी रुद्र हैं, उस सप्त कपालयाग के द्वारा दूसरा जल प्राप्त किया। इस प्रकार त्रिनेत्रधारी भगवान शिव के प्रसन्न होने पर ही भूतल पर जल की उपलब्धि हुई। अत्रि की पत्नी ब्रह्मावादिनी अनसूया भी किसी समय रुष्ट हो अपने पति को त्याग कर चली गयीं और मन में यह संकल्प करके कि 'अब मैं किसी तरह भी पुन: अत्रिमुनि के वशीभूत नहीं होऊँगी' महादेव जी की शरण में गयीं । अत्रिमुनि के भय से तीन सौ वर्षों तक निराहार रहकर मुसलों पर ही सोयीं और भगवान शंकर की प्रसन्नता के लिये तपस्या करती रहीं ।
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