महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 160 श्लोक 1-20

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

षष्‍टयधिकशततम (160) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: षष्‍टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्‍णद्वारा भगवान शंकर के माहात्‍म्‍य का वर्णन

युधिष्ठिर ने पूछा – मधुसूदन ! उस समय दुर्वासा के प्रसाद से इहलोक में आपको जो विज्ञान प्राप्‍त हुआ, उसे विस्‍तारपूर्वक मुझे बताइये। बद्धिमानों में श्रेष्‍ठ श्रीकृष्‍ण ! उन महात्‍मा के महान सौभाग्‍य को ओर उनके नामों को मैं यथार्थ रूप से जानना चाहता हूँ । वह सब विस्‍तारपूर्वक बताइये। भगवान श्रीकृष्‍णने कहा – राजन ! मैं जटाजूटधारी भगवान शंकर को नमस्‍कार करके प्रसन्‍नतापूर्वक यह बता रहा हूँ कि मैंने कौन-सा श्रेय प्राप्‍त किया और किस यश का उपार्जन किया। प्रजानाथ ! मैं प्रतिदिन प्रात:काल उठकर मन और इन्द्रियों को संयम में रखते हुए हाथ जोड़कर जिस शतरूद्रिय का जप एवं पाठ करता हूँ, उसे बता रहा हूँ; सुनो। त्तात ! महातपस्‍वी प्रजापति ने तपस्‍या के अन्‍त में उस शतरूद्रिय की रचना की और शंकर जी ने समस्‍त चराचर प्राणियों की सृष्टि की। प्रजानाथ ! तीनों लोकों में महादेवजी से बढकर दूसरा कोई श्रेष्‍ठ देवता नहीं है; क्‍योंकि वे समस्‍त भूतों की उत्‍पति के कारण हैं। उन महात्‍मा शंकर के सामने कोई भी बड़ा होने का साहस नहीं कर सकता। तीनों लोकों में कोई भी प्राणी उनकी समता करने वाला नहीं है। ग्राम में जब वे कुपित होते हैं, उस समय उनकी गन्‍ध से भी सारे शत्रु अचेत और मृतप्राय होकर थर-थर काँपने एवं गिरने लगते हैं।
संगा्म में मेघगर्जना के समान गम्‍भर उनका घोर सिंहनाद सुनकर देवताओं का भी हृदय विदीर्ण हो सकता है। पिनाकधारी रूद्र कुपित होकर जिन्‍हें भयंकररूप से देख लें, उनके भी हृदय के टुकड़े-टुकड़े हो जायँ । संसार में भगवान शंकर के कुपित हो जाने पर देवता, असुर, गन्‍धर्व और नाग यदि भागकर गुफा में छिप जायँ तो भी सुख से नहीं रह सकते। प्रजापति दक्ष जब यज्ञ कर रहे थे, उस समय उनका यज्ञ आरम्‍भ होने पर कुपित हुए भगवान शंकर ने निर्भय होकर उनके यज्ञ को अपने बाणों से बींध डाला और धनुष से बाण छोड़कर गम्‍भीर स्‍वर में सिंहनाद किया। इससे देवता बेचैन हो गये, फिर उन्‍हें शान्ति कैसे मिले । जब यज्ञ सहसा बाणों से बिंध गया और महेश्‍वर कुपित हो गये तब बेचारे देवता विषाद में डूब गये।
पार्थ ! उनके धनुष की प्रत्‍यंचा के शब्‍द से समस्‍त लोक व्‍याकुल और विवश हो उठे और सभी देवता एवं असुर विषाद में मग्‍न हो गये। समुद्र आदि का जल क्षुब्‍ध हो उठा, पृथ्‍वी काँपने लगी, पर्वत पिघलने लगे और आकाश सब ओर से फटने-सा लगा। समस्‍त लोक घोर अन्‍धकार से आवृत होने के कारण प्रकाशित नहीं होते थे । भारत ! ग्रहों और नक्षत्रों का प्रकाश सूर्य के साथ ही नष्‍ट (अदृश्‍य) हो गया। सम्‍पूर्ण भूतों का और अपना भी हित चाहने वाले ॠषि अत्‍यन्‍त भयभीत हो शान्ति एवं स्‍वस्तिवाचन आदि कर्म करने लगे। तदनन्‍तर भयानक पराक्रमी रूद्र देवताओं की ओर दौड़े । उन्‍होंने क्रोधपूर्वक प्रहार करके भगदेवता के नेत्र नष्‍ट कर दिये। फिर उन्‍होंने रोष में भरकर पैदल ही पूषादेवता का पीछा किया और पुरोडाश भक्षण करने वाले उनके दाँतों को तोड़ डाला। तब सब देवता काँपते हुए वहाँ भगवान शंकर को प्रणाम करने लगे । इधर रूद्रदेव ने पुन: एक प्रज्‍वलित एवं तीखे बाण का संधान किया।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।