महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 17 श्लोक 78-91

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सप्तदश (17) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तदश अध्याय: श्लोक 78-91 का हिन्दी अनुवाद

394 बीजाध्यक्षः- कारणोंके अध्यक्ष, 395 बीजकर्ता- कारणोंके उत्पादक, 396 अध्यायत्मनुगतः- अध्यात्मशास्त्रका अनुसरण करनेवाले, 397 बलः- बलवान्, 398 इतिहासः- महाभारत आदि इतिहासस्वरूप, 399 संकल्पः- कल्प-यज्ञोंके प्रयोग और विधिके विचारके साथ मीमांसा और न्यायका समूह, 400 गौतमः- तर्कशास्त्रके प्रणेता मुनिस्वरूप, 401 निशाकरः- चन्द्रमारूप। 402 दम्भः- शत्रुओंका दमन करनेवाले, 403 अदम्भः- दम्भरहित, 404 वैदम्भः- दम्भरहित पुरूषोंके आत्मीय, 405 वषय- भक्तपराधीन, 406 वशकरः7 दूसरोंको वशमें करनेकी शक्ति रखनेवाले, 407 कलिः- कलि नामक युग, 408 लोककर्ता- जगत कि सृष्टि करनेवाले, 409 पशुपतिः- पशुओं-जीवोंके स्वामी, 410 महाकर्ता- पंच महाभूतादि सृष्टिकी रचना करनेवाले, 411 अनौषधः- अन्न आदि ओषधियोंके सेवनसे रहित। 412 अक्षरम्- अविनाशी ब्रहा, 413 परमं ब्रहा-सर्वात्कृष्ट परमात्मा, 414 बलवत्- शक्तिशाली, 415शक्रः- इन्द्र, 416 नीतिः- न्यायस्वरूप, 417 अनीतिः- साम,दाम,दण्ड़,भेदसे रहित, 418शुद्धात्माः- शुद्धस्वरूप, 419शुद्धः- परम पवित्र, 420 मान्यः- सम्मानने योग्य, 421 गतागतः- गमनागमनशील संसारस्वरूप,। 422 बहुप्रसादः- भक्तोंपर अधिक कृपा करनेवाले, 423 सुस्वप्नः- सुन्दर स्वप्नवाले, 424 दर्पणः- दर्पणके समान स्वच्छ, 425 अमित्रजित्-बाहर-भीतरके शत्रुओंके जीतनेवाले, 426 वेदकारः- वेदोंका कर्ता, 427 मन्त्रकारः- मन्त्रोंका आविष्कार करनेवाले, 428 विद्वान् सर्वज्ञ, 429 समरमर्दनः- समरांगणमें शत्रुओंका संहार करनेवाले। 430 महामेघनिवासी- प्रलयकालिक महामेघोंमें निवास करनेवाले, 431 महाघोरः- प्रलय करनेवाले, 432 वशी- सबको वशमें रखनेवाले, 433 करः- संहारकारी, 434 अग्निज्वालः- अग्निकी ज्वालाके समान तेजवाले, 435 महाज्वालः- अग्निसे भी महान् तेजवाले, 436 अतिधूम्रः- कालग्निरूपसे सबके दाहकालमें अत्यन्त धूम्र वर्णवाले, 437 हुतः- आहुति पाकर प्रसन्न होनेवाले अग्निरूप, 438 हविः- घी-दूध आदि हवनीय पदार्थरूप। 439 वृषणः- कर्मफलकी वर्षा करनेवाले धर्मस्वरूप, 440शकर-कल्याणकारी, 441 नित्यं वर्चस्वी- सदा तेजसे जगमगासे रहनेवाले, 442 धूमकेतनः- अग्निस्वरूप, 443 नीलः- शमवर्ण श्रीहरि, 444 अंगलुब्धः- अपने श्रीअंगके सौन्दर्यपर स्वयं ही लुभाये रहनेवाले, 445शोभनः- शोभाशाली, 446 निरवग्रहः- प्रतिबन्धरहित। 447 स्वस्तिदः- कल्याणदायक, 448 स्वस्तिभावः- कल्याणमयी सता, 449 भागी- यज्ञमें भागलेनेवाले, 450 भागकरः- यज्ञके हविष्यका विभाजन करनेवाले, 451 लघुः- शीघ्रकारी, 452 उत्संग- संगरहित, 453 महागः- महान् अंगवाले, 454 महागर्भपरायणः- हिरण्यगर्भके परम आश्रय। 455 कृष्णवर्णः- शमवर्ण विष्णुस्वरूप, 456 सुवर्णः- उत्त4म वर्णवाले, 457 सर्वदेहिनाम् इन्द्रियम्-समस्त देहधारियोंके इन्द्रियसमुदायरूप, 458 महापादः- लंबे पैरोवाले त्रिविक्रमस्वरूप, 459 महाहस्तः- लंबे हाथवाले, 460 महाकायः- विश्वरूप, 461 महायशा- महान् सुयशवाले।।85।। 462 महामूर्धा- महान् मस्तकवाले, 463 महामात्रः- विशाल नापवाले, 464 महानेत्रः- विशाल नेत्रोंवाले, 465 निशालयः- निशा अर्थात् अविद्याके लयस्थान, 466 महान्तकः- मृत्युकी भी मृत्यु, 467 महाकर्णः- बड़े-बड़े कानवाले, 468 महोष्ठः- लंबे ओठवाले, 469 महाहनुः- पुष्ट एवं बड़ी ठोड़ीवाले। 470 महानासः- बड़ी नासिकावाले, 471 महाकम्बुः- बड़े कण्ठवाले, 472 महाग्रीवः- विशाल ग्रीवासे युक्त, 473श्मशानभाक्-श्मशान भूमिमें क्रीड़ा करनेवाले 474 महावक्षाः- विशाल वक्षःस्थलवाले, 475 महोरस्कः- चौड़ी छातीवाले, 476 अन्तरात्मा- सबके अन्तरात्मा, 477 मृगालयः- मृग-शिशुको अपनी गोदमें लिये रहनेवाले। 478 लम्बनः- अनेक ब्रहाण्डोके आश्रय, 479 लम्बितोष्ठः- प्रलयकालमें सम्पूर्ण विश्वको अपना ग्रास बनानेके लिये ओठोंको फैलाये रखनेवाले, 480 महामायः- महामायावी, 481 पयोनिधिः- क्षीरसागररूप, 482 महादन्तः- बड़े-बडे दाढ़वाले, 484 महामायः- विशाल महामायवाले, 485 महामुखः- बहुत बड़े मुखवाले। 486 महानखः- बड़े-बड़े नखवाले नृसिंह, 487 महारोमा-विशाल रोमवाले वराहरूप, 488 महाकोषः- बहुत बड़े पेटवाले, 489 महाजटः- बड़ी-बड़ी जटावाले, 490 प्रसन्नः- आनन्दमग्न, 491 प्रसादः- प्रसन्नताकी मूर्ति, 492 प्रत्ययः- ज्ञानस्वरूप, 493 गिरिसाधनः- पर्वतको युद्धका साधन बनानेवाले। 494 स्नेहनः- प्रजाओंके प्रति पिताकी भांति स्नेह रखनेवाले, 495 अस्नेहनः- आसक्तिसे रहित, 496 महामुनिः- अत्यन्त मननशील, 497 वृक्षाकारः-संसारवृक्षस्वरूप, 498 अजितः- किसीसे पराजित न होनेवाले, 499 वृक्षकेतुः- वृक्षके समान उंची ध्वजावाले, 500 अनलः- अग्निस्वरूप, 501 वायुवाहनः- वायुका वाहनके रूपमें उपयोग करनेवाले। 502 गण्डली- पहाड़ोकी गुफाओंमें छिपकर रहनेवाले, 503 मेरूधामा-मेरू-पर्वतको अपना निवासस्थान बनानेवाले, 504 देवाधिपतिः- देवताओंके स्वामी, 505 अथर्वशीर्ष जिनका मस्तक है वे, 506 सामास्यः- सामवेद जिनका मुख है वे, 507 ऋक्सहस्त्रामितेक्षणः- सहस्त्रों ऋचाएं जिनके नेत्र हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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