महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 19 श्लोक 64-86

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एकोनविंश (19) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: एकोनविंश अध्याय: श्लोक 64-86 का हिन्दी अनुवाद

वहां पहुंचकर अष्टावक्रके मनमें यह चिन्ता हुई कि अब कहां ठहरा जाय। यह विचार उठते ही वे प्रमुख द्वारके समीप गये और खड़े होकर बोले। उस आश्रमके चारों ओर विचित्र मणिमय तोरणोंसे सुशोभित, मोतीकी झालरोंसे अलंकृत तथा मणि एवं रत्नोंसे विभूषित सुन्दर शोभापर रहे थे। वे मनको मोह लेनेवाले तथा दृष्टिको बरबस अपनी ओर आकृष्ट कर लेनेवाले थे। उन मंगलमय भवनोंसे घिरा और ऋषि-मुनियोंसे भरा हुआ वह आश्रम बड़ा मनोहर जान पड़ता था। इस घरमें जो लोग रहते हों, उन्हें यह विदित होना चाहिये कि मैं एक अतिथि यहां आया हूं।उनके इस प्रकार कहते ही उस घरसे एक साथ सात कन्याएं निकलीं। वे सब-की-सब भिन्न-भिन्न् रूपवाली तथा बड़ी मनोहर थीं। विभो! अष्टावक्र मुनि उनमें से जिस-जिस कन्याकी ओर देखते, वही-वही उनका मन हर लेती थी। वे अपने मनको रोक नहीं पाते थे। बलपूर्वक रोकनेपर उनका मन शिथिल होता जाता था। तदनन्तर उन बुद्धिमान ब्राहमणके हदय में किसी तरह धैर्य उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् वे सातों तरूणी स्त्रियां बोलीं-भगवन! टाप घरके भीतर प्रवेश करें।ऋषिके मनमें उन सुन्दरियोंके तथा उस घरके विषयमें कौतूहल पैदा हो गया था;अतः उन्होंने उस घरमें प्रवेश किया। वहां उन्होंने एक जराजीर्ण वृद्धा स्त्रीको देखा, जो निर्मल वस्त्र धारण किये समस्त आभूषणोंसे विभूषित हो पलंगपर बैठी हुई थी। अष्टावक्र ने स्वस्तिकहकर उसे आशीर्वाद दिया। वह स्त्री उनके स्वागतके लिये पलंगसे उठकर खड़ी हो गयी और इस प्रकार बोली-विप्रवर! बैठिये। अष्टावक्रने कहा-सारी स्त्रियां अपने-अपने घरको चली जाये। केवल एक ही मेरे पास रह जाये। जो ज्ञानवती तथा मन और इन्द्रियोंको शान्त रखनेवाली हो, उसीको यहां रहना चाहिये। शेष स्त्रियां अपनी इच्छाके अनुसार जा सकती है। तदनन्तर वे सब कन्याएं उस समय ऋषिकी परिक्रमा करके उस घरसे निकल गयीं। केवल वह वृद्धा ही वहां ठहरी रही। तत्पश्चात् उज्ज्वल एवं प्रकाशमान शयापर सोते हुए ऋषिने उस वृद्धासे कहा-भद्रे! अब तुम भी सो जाओ। रात अधिक बीत चली है। बातचीतके प्रसंगमें उस ब्राहमणके ऐसा कहनेपर वह भी दूसरे अत्यन्त प्रकाशमान दिव्य पलंगपर सो रही। थोड़ी ही देरमें वह सरदी लगनेका बहाना करके थरथर कांपती हुई आयी और महर्षिकी शयापर आरूढ़ हो गयी। पास आनेपर भगवान अष्टावक्रने आइये, स्वागत हैऐसा कहकर उसके प्रति सम्मान प्रदर्शित किया। नरश्रेष्ठ! उसने प्रेमपूर्वक दोनों भुजाओंसे ऋषिका आलिंगन कर लिया तो भी उसने देखा, ऋषि अष्टावक्र सूखे काठ और दीवारके समान विकारशून्य हैं। उनकी ऐसी स्थिति देख वह बहुत दुखी हो गयी और मुनिसे इस प्रकार बोले-ब्रहमन्!पुरूषको अपने समीप पाकर उसके काम-व्यवहारको छोड़कर और किसी बातसे स्त्रीको धैर्य नहीं रहता। मैं कामसे मोहित होकर आपकी सेवामें आयी हूं। आप मुझे स्वीकार कीजिये। ब्रहमार्षे!आप प्रसन्न हों और मेरे साथ समागम करें।। विप्रवर!आप मेरा आलिंगन कीजिये। मैं आपके प्रति अत्यन्त कामातुर हूं। धर्मात्मन!यही आपकी तपस्याका प्रशस्त फल है। मैं आपको देखते ही आपके प्रति अनुरक्त हो गयी हूं; अतः आप मुझ सेविकाको अपनाइये। मेरा यह सारा धन तथा और जो कुछ आप देख रहे हैं, उस सबके तथा मेरे भी आप ही स्वामी हैं-इसमें संशय नहीं है। आप मेरे साथ रमण कीजिये। मैं आपकी समस्त कामनाएं पूर्ण करूंगी। ब्रहमन्!सम्पूर्ण मनोवांछित फलको देनेवाले इस रमणीय वनमें मैं आपके अधीन होकर रहूंगी। आप मेरे साथ रमण कीजिये। हमलोग यहां दिव्य और मनुष्यलोक-सम्बन्धी सम्पूर्ण भोगोंका उपभोग करेंगे। स्त्रियोंके लिये पुरूषसंसर्ग जितना प्रिय है, उससे बढ़कर दूसरा कोई फल कदापि प्रिय नहीं होता। यही हमारे लिये सर्वोतम फल है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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