महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 22 श्लोक 1-17
द्वाविंश (22) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
युधिष्ठिर के विविध धर्मयुक्त प्रश्नों का उत्तर तथा श्राद्ध और दानके उत्तम पात्र के लक्षण मार्कण्डेय जी के द्वारा विविध प्रश्न और नारदजी के द्वारा उनका उत्तर।
युधिष्ठिरने पूछा-भरतश्रेष्ठ! प्राचीन ब्राहमण किसको दानका श्रेष्ठ पात्र बताते है ? दण्ड-कमण्डलु आदि चिहन धारण करनेवाले ब्रहमचारी ब्राहामणको अथवा चिहनरहित गृहस्थ ब्राहामणको ? भीष्मजीने कहा-महाराज! जीवन-रक्षाके लिये अपनी वर्णाश्रमोचित वृतिका आश्रय लेनेवाले चिहनधारी या चिहनरहित किसी भी ब्राहामणको दान दिया जाना उचित बताया गया है; क्योंकि स्वधर्मका आश्रय लेनेवाले ये दोनों ही तपस्वी एवं दानपात्र हैं। युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह!जो केवल उत्कृष्ट श्रद्धासे ही पवित्र होकर ब्राहामणको हव्य-कव्य तथा अन्य वस्तुका दान देता है, उसे अन्य प्रकारकी पवित्रता न होनेके कारण किस दोषकी प्राप्ति होती है ? भीष्मजीने कहा-तात! मनुष्य जितेन्द्रिय न होनेपर भी केवल श्रद्धामात्रसे पवित्र हो जाता है-इसमें संशय नहीं है। महातेजस्वी नरेश! श्रद्धापूत मनुष्य सर्वत्र पवित्र होता है, फिर तुम-जैसे धर्मात्माके पवित्र होनेमें तो संदेह ही क्या है ? युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह! विद्वानोंका कहना है कि देवकार्यमे कभी ब्राहामणकी परीक्षा न करे, किंतु श्राद्धमें अवश्य उसकी परीक्षा करे; इसका क्या कारण है ? भीष्मजीने कहा-बेटा! यज्ञ-होम आदि देवकार्यकी सिद्धि ब्राहामणके अधीन नहीं है, वह दैवसे सिद्ध होता है। देवताओं की कृपासे ही यजमान यज्ञ करते है। इसमें संशय नहीं है। भरतश्रेष्ठ! बुद्धिमान मार्कण्डेयजीने बहुत पहलेसे ही यह बता रखा है कि श्राद्धामें सदा वेदवेता ब्राहामणोंके ही निमन्त्रित करना चाहिये (क्योंकि उसकी सिद्धि सुपात्र ब्राहामणके ही अधीन है) ।युधिष्ठिरने पूछा-जो अपरिचित्, विद्वान्, सम्बन्धी, तपस्वी अथवा यज्ञशील हों, इनमें से कौन किस प्रकारके गुणोंसे सम्पन्न होनेपर श्राद्ध एवं दानका उतम पात्र हो सकता है ? भीष्मजीने कहा-कुलीन,कर्मठ,वेदोंके विद्वान्, दयालु,सलज्ज,सरल और सत्यवादी-इन सात प्रकारके गुणवाले जो पूर्वोक्त तीन (अपरिचित विद्वान्, सम्बन्धी और तपस्वी) ब्राहामण हैं, वे उतम पात्र माने गये हैं। कुन्तीनन्दन! इस विषयमें तुम मुझसे पृथ्वी, काश्यप, अग्नि और मार्कण्डेय-इन चार तेजस्वी व्यक्तियोंका मत सुनो। पृथ्वी कहती है-जिस प्रकार महासागर में फेंका हुआ ढेला तुरंत गलकर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह-इन तीन वृतियोंसे जीविका चलानेवाले ब्राहामणमें सारे दुष्कर्मोंका लय हो जाता है। काश्यप् कहते हैं-नरेश्वर!जो ब्राहामण शीलसे रहित हैं, उसे छहों अंगोंसहित वेद,सांख्य और पुराणका ज्ञान तथा उतम कुलमें जन्म-ये सब मिलकर भी उतम गति नहीं प्रदान कर सकते। अग्नि कहते हैं-जो ब्राहामण अध्ययन करके अपनेको बहुत बड़ा पण्डित मानता और अपनी विद्वतापर गर्व करने लगता है तथा जो अपनी विद्याके बल से दूसरोंके यशका नाश करता है, वह धर्मसे भ्रष्ट होकर सत्यका पालन नहीं करता; अतः उसे नाशवान् लोकोंकी प्राप्ति होती है।मार्कण्डेयजी कहते हैं- यदि तराजूके एक पलड़ेमें एक हजार अश्वमेघ-यज्ञको और दूसरेमें सत्यको रखकर तौला जाय तो भी न जाने वे सारे अश्वमेघ-यज्ञ इस सत्यके आधेके बराबर भी होंगे या नहीं ? भीष्मजी कहते हैं-युधिष्ठिर! इस प्रकार अपना मत प्रकट करके वे चारों अमिततेजस्वी व्यक्ति-पृथ्वी,काश्यप,अग्नि और मार्कण्डेय शीघ्र ही चले गये।। युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह! यदि ब्रहमाचर्यव्रतका पालन करनेवाले ब्राहामण श्राद्धमे हविष्यान्नका भोजन करते है तो श्रेष्ठ ब्राहामणकी कामनासे उन्हें दिया हुआ दान कैसे सफल हो सकता है ?।भीष्मजीने कहा-राजेन्द्र!(जिन्हें गुरूने नियत वर्षोंतक ब्रहमचर्य-व्रत पालन करनेका आदेश दे रखा है वे आदिष्टी कहलाते हैं।) ऐसे अनेक वेदके पारगंत आदिष्टी ब्राहामण यदि यजमानकी ब्राहामणको दान देनेकी इच्छापूर्तिके लिये श्राद्धमें भोजन करते हैं तो उनका अपना ही व्रत नष्ट हो जाता है (इससे दाताका दान दूषित नहीं होता है)[१]।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ * श्राद्धमें भोजन करने योग्य ब्राहामणके विषयमें स्मृतियोंमें इस प्रकार उल्लेख मिलता है-कर्मनिष्ठास्तपोनिष्ठाः पंचाग्निब्रहमाचारणिः। पितृमातृपराष्चैव ब्रहामणः श्राद्धसम्पदः। तथा-’व्रतस्थमपि दौहित्रं श्राद्धे यत्नेन भोजयेत्।’ तात्पर्य यह है कि क्रियानिष्ठ,तपस्वी,पंचाग्निका सेवन करनेवाले, ब्रहमचारी तथा पिता-माताके भक्त-ये पांच प्रकारके ब्रहामण श्राद्धकी सम्पति है। इन्हें भोजन कराने से श्राद्धकर्मका पूर्णताय सम्पादन होता है।’ तथा’ अपनी कन्याका बेटा ब्रहमाचारी हो तो भी यत्नपूर्वक उसे श्रद्धामे भोजन कराना चाहिये।’ ऐसा करनेसे श्राद्धकर्ता पुण्यका भागी होता है। केवल ब्रहमाचारी ही ऐसी छूट दी गयी है।श्राद्धके अतिरिक्त और किसी कर्ममें ब्रहमाचारीको लोभ आदि दिखाकर जो उसके व्रतको भंग करता है, उसे दोषका भागी होना पड़ता है। और अपने किये हुए दानका भी पूरा-पूरा फल नहीं मिलता। इसीलिये शास्त्रमें लिखा है कि ’मनसा पात्रमुदिश्य जलमध्ये जलं क्षिपेत्। दाता तत्फलमाप्नोति प्रतिग्राही न दोषभाक्।।’ अर्थात्’ यदि किसी सुपात्र (ब्रहमाचारी आदि)-को दान देना हो तो उसका मनमें ध्यान करे और उसे दान देनेके उदेश्यमें हाथमें संकल्पका जल लेकर उसे जलहीमें छोड़ दें। इससे दाताको दानका फल मिल जाता है। और दान लेनेवालेको दोषका भागी नहीं होना पड़ता।’ यह बात सत्पात्रका आदर करने के लिये बतायी गयी है। (नीलकण्ठी)