महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 28 श्लोक 1-16

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अष्टाविंश (28) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: अष्टाविंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

ब्राहमणत्व प्राप्त करने का आग्रह छोड़कर दूसरा वर मांगने के लिये इन्द्रका मतंग को समझाना

भीष्मजी कहते हैं-राजन्! इन्द्र के ऐसा कहने पर मतंग का मन और भी दृढ़ हो गया। वह संयमपूर्वक उतम व्रत का पालन करने लगा। अपने धैर्य से च्युत न होने वाला मतंग सौ वर्षों तक एक पैर से खड़ा रहा। तब महायशस्वी इन्द्रने पुनः आकर उस से कहा-’तात! ब्राहमणत्व दुर्लभ है। उसे मांगने पर भी पा न सकोगे। मतंग! तुम इस उतम स्थान को मांगते-मांगते मर जाओंगे। बेटा! दुःसाहस न करो। तुम्हारे लिये यह धर्म का मार्ग नहीं है। ’दुर्मते! तुम इस जीवन में ब्राहमणत्व नहीं पा सकते। उस अप्राप्त वस्तु के लिये प्रार्थना करते-करते शीघ्र ही काल के गाल में चले जाओगे।
’मतंग! मैं तुम्हें बार-बार मना करता हूं तो भी उस उत्कृष्ट स्थान को तुम तपस्याद्वारा प्राप्त करने की अभिलाशा करते ही जाते हो। ऐसा करने से सर्वथा तुम्हारी सता मिट जायगी। ’पशु-पक्षीकी योनि में पड़े हुए सभी प्राणी यदि कभी मनुष्ययोनि में जाते हैं तो पहले पुल्कस या चाण्डाल के रूप में जन्म लेते हैं-इस में संशय नहीं है। ’मतंग! पुल्कस या जो कोई भी पाप योनि पुरूष यहां दिखायी देता है वह सुदीर्घकाल तक अपनी उसी योनि में चक्कर लगाता रहता है। ’तदनन्तर एक हजार वर्ष बीतने पर वह चाण्डाल या पुल्कस शूद्रयोनि में जन्म लेता है और उसमे भी अनेक जन्मों तक चक्कर लगाता रहता है। ’तत्पश्चात् तीसगुना समय बीतने पर वह वैश्य-योनि में आता है और चिरकालतक उसी में चक्कर काटता रहता है। इसके बाद साठगुना समय बीतने पर वह क्षत्रिय की योनि में जन्म लेता है। फिर उससे भी साठगुना समय बीतने पर वह गिरे हुए ब्राहमण के घरमें जन्म लेता है।’दीर्घकाल तक ब्राहमणधम रहकर जब उसकी अवस्था परिवर्तित होती है त बवह अस्त्र-शस्त्रों से जीविका चलानेवाले ब्राहमण के यहां जन्म लेता है। फिर चिरकालतक वह उसी योनि में पड़ा रहता है।
तदनन्तर तीन सौ वर्ष का समय व्यतीत होने पर वह गायत्री-मात्र का जप करनेवाले ब्राहमण के यहां जन्म लेता है। उस जन्म को पाकर वह चिरकालतक उसी योनि में जन्मता-मरता रहता है। फिर चार सौ वर्षों का समय व्यतीत होने पर वह श्रोत्रिय (वेदवेता) ब्राहमण के कुल में जन्म लेता है और उसी कुल में चिरकालतक उसका आवागमन होता रहता है। बेटा! इस प्रकार शोक-हर्ष, राग-द्वेष, अतिमान और अतिवाद आदि दोषों का अधम द्विज के भीतर प्रवेश होता है। यदि वह इन शत्रुओं को जीत लेता है तो सद्गति को प्राप्त होता है और यदि वे शत्रु ही उसे जीत लेते हैं तो ताड़ के वृक्ष के उपर से गिरनेवाले फल की भांति वह नीचे गिरा दिया जाता है। ’मतंग! यही सोचकर मैंने तुमसे कहा था कि तुम कोई दूसरी अभीष्ट वस्तु मांग लो; क्योंकि ब्राहमणत्व अत्यन्त दुर्लभ है’।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तर्गत दानधर्मपर्व में इन्द्र और मतंग का संवादविषयक अट्ठाईसवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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