महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 2 श्लोक 83-96
द्वितीय (2) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
अपने तपोबल से युक्त यह ब्रह्मवादिनी नारी संसार को पवित्र करने के लिये अपने आधे शरीर से ओघवती नामवाली श्रेष्ठ नदी होगी और आधे शरीर से यह परम सौभाग्यवती सती तुम्हारी सेवा में रहेगी । योग सदा इसके वश में रहेगा। तुम भी इसके साथ अपनी तपस्या से प्राप्त हुए उन सनातन लोकों में जाओगे जहाँ से फिर इस संसार में लौटना नही पड़ता। तुम इसी शरीर से उन दिव्य लोकों मे जाओगे: क्योंकि तुमने मृत्यु को जीत लिया है और तुम्हें उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त है। अपने पराक्रम से पन्चभूतों को लाँघकर तुम मन के समान वेगवान हो गये हो । इस गृहस्थ धर्म के आचरण से ही तुमने काम और क्रोध पर विजय पा ली है। राजन ! राजकुमारी ओघवती ने तुम्हारी सेवा के बल से स्नेह (आसक्ति), राग, आलस्य, मोह, और द्रोह आदि दोषों को जीत लिया है।भीष्मजी कहते हैं – युधिष्ठिर ! तदनन्तर भगवान इन्द्र भी श्वेत रंग के एक हजार घोड़ों से जुते हुए उत्तम रथ को लेकर उनसे मिलने के लिये आये। इस प्रकार सुदर्शन अतिथि-सत्कार के पुण्य से मृत्यु, आत्मा, लोक, पञचभूत, बुद्धि, काल, मन, आकाश, काम और क्रोध को भी जीत लिया।
पुरूषसिंह ! इसलिये तुम अपने मन में यह निश्चित विचार कर लो कि गृहस्थ पुरूष के लिये अतिथि को छोड़कर दूसरा कोई देवता नहीं है। यदि अतिथि पूजित होकर मन-ही-मन गृहस्थ के कल्याण का चिन्तन करे तो उससे जो फल मिलता है उसकी सौ यज्ञों से भी तुलना नहीं हो सकती अर्थात सौ यज्ञों से भी बढकर है । ऐसा मनीषी पुरूषो का कथन है। जो गहस्थ सुपात्र और सुशील अतिथि को पाकर उसका यथोचित सत्कार नहीं करता, वह अतिथि उसे अपना पाप दे उसका पुण्य लेकर चला जाता है। बेटा ! तुम्हारे प्रश्न के अनुसार पूर्वकाल में गृहस्थ ने जिस प्रकार मृत्यु पर विजय पायी थी, वह उत्तम उपाख्यान मैंने तुमसे कहा। यह उत्तम आख्यान धन, यहश और आयु की प्राप्ति कराने वाला है । इससे सब प्रकार के दुष्कर्मों का नाश हो जाता है, अत: अपनी उन्नति चाहने वाले पुरूष को सदा ही इसके प्रति आदरबुद्धि रखनी चाहिये। भरतनन्दन ! जो विद्वान सुदर्शन के इस चरित्र का प्रतिदिन वर्णन करता है वह पुण्यलोकों को प्राप्त होता है[१]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इस अध्याय में वर्णित चरित्र असाधारण शक्तिसम्पन्न पुरूषों के हैं । आजकल के साधारण मनुष्यों को इसके उस अंश का अनुकरण नहीं करना चाहिए जिसमें स्त्री के लिये अपने शरीर-प्रदान की बात कही गयी है । अतिथि को अन्न, जल, बैठने के लिए आसन, रहने के लिए स्थान, सोन के लिए बिस्तर और वस्त्र आदि वस्तुएँ अपनी शक्ति के अनुसार समर्पित करनी चाहिये । मीठे वचनों द्वारा उसका आदर-सत्कार भी करना चाहिये । इतना ही इस अध्याय का तात्पर्य है।