महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 30 श्लोक 39-58

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त्रिंश (30) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रिंश अध्याय: श्लोक 39-58 का हिन्दी अनुवाद

उसके रथ की घोर घरघराहट सुनकर विचित्र ढंग से युद्ध करनेवाले पुरूष सिंह हैहयराजकुमार कवच से सुसज्जित होकर शत्रुओं के रथ को तोड़ डालनेवाले नगरा कार विशाल रथों पर बैठे हुए पुरी से बाहर निकले और धनुष उठाये बाणों की वर्षा करते हुए प्रतर्दन पर चढ़ आये। युधिष्ठिर! जैसे बादल हिमालय पर जल बरसाते हैं, उसी प्रकार हैहयराजकुमारों ने रथसमूहों द्वारा आकर राजा प्रतर्दन पर नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। तब महा तेजस्वी राजा प्रतर्दन ने अपने अस्त्रों द्वारा शत्रुओं के अस्त्रों का निवारण करके वज्र और अग्नि के समान तेजस्वी बाणों के उन सबको मार डाला। राजन्! भल्लों की मार से उनके मस्तक के सैकड़ों और हजारों टुकड़े हो गये थे। उनके सारे अंग खून से लथपथ हो गये और वे कटे हुए पलाश के वृक्ष की भांति धरती पर गिर पड़े। उन सब पुत्रों के मारे जाने पर राजा वीतहव्य अपना नगर छोड़ कर महर्षि भृगु के आश्रम में भाग गये। राजन्! वहां नरेश्वर वीतहव्य ने महर्षि भृगु की प्रतर्दन भी शीघ्र ही वहां पहुंचा।
आश्रम में पहुंचकर उसने इस प्रकार कहा-भाइयो! इस आश्रम में महात्मा भृगु के शिष्य कौन-कौन हैं? मैं महर्षि का दर्शन करना चाहता हूं। आपलोग उन्हें मेरे आगमन की सूचना दे दें। प्रतर्दन को आया जान भृगु जी आश्रम से निकले। उन्होंने नृपश्रेष्ठ प्रतर्दन का विधिपूर्वक स्वागत-सत्कार किया।। और इस प्रकार पूछा-’राजेन्द्र! पृथ्वीनाथ! मुझ से आपका क्या काम है, बताइये।’ तब राजा ने उनसे अपने आगमन का जो कारण था, उसे इस प्रकार बताया। राजाने कहा- ब्रहमन्! श्राजा वीतहव्य को आप यहां से बाहर निकाल दीजिये। विप्रवर! इन के पुत्रों ने मेरे सम्पूर्ण कुल का विनाश कर डाला है। इतना ही नहीं, उनके पुत्रों ने काशिप्रान्त का सारा राज्य उजाड़ डाला और रत्नों का संग्रह लूट लिया है। बल के घमंड में भरे हुए इन राजा के सौ पुत्रों को तो मैंने मार डाला; अब केवल ये ही रह गये है।
इस समय इनका भी वध करके मैं पिता के ऋण से उऋण हो जाउंगा। तब धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भृगु ने दया से द्रवित होकर उनसे कहा-’राजन्! यहां कोई क्षत्रिय नहीं है। ये सब-के-सब ब्राहमण हैं। महर्षि भृगु का यह यथार्थ वचन सुनकर प्रतर्दन बहुत प्रसन्न हुआ और धीरे से उनके दोनों चरण छूकर बोला- ’भगवन्! यदि ऐसी बात है तो मैं कृतकृत्य हो गया, इस में संशय नहीं है। ’क्योंकि इन राजाओं को मैंने अपने पराक्रम से अपनी जाति त्याग देने के लिये विष कर दिया। ब्रहमन्! मुझे जाने की आज्ञा दीजिये और मेरा कल्याण-चिन्तन कीजिये। भृगुवंशी महर्षे! मैंने इन राजा से अपनी जातिका त्याग करवा दिया।’ महाराज! तदनन्तर महर्षि की आज्ञा लेकर राजा प्रतर्दन जैसे सांप अपने विषको त्याग देता है, उसी प्रकार क्रोध छोड़कर जैसे आया था वैसे लौट गया। नरेश्वर! इस प्रकार राजा वीतहव्य भृगुजी के कथनामात्र से ब्रहमार्षि एवं ब्रहमवादी हो गये। उनके पुत्र गृत्समद हुए जो रूप से दूसरे इन्द्र के समान थे। कहते हैं, किसी समय दैत्यों ने उन्हें यह कहते हुए पकड़े लिया था कि ’ तुम इन्द्र हो’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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