महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 40 श्लोक 20-40
चत्वारिंश (40) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
तात! एक समय ॠषि ने यज्ञ करने का विचार किया। उस समय वे यह सोचने लगे कि ‘यदि मैं यज्ञ में लग जाऊँ तो मेरी स्त्री की रक्षा कैसे होगी।' फिर उन महातपस्वी ने मन-ही-मन उसकी रक्षा का उपाय सोचकर अपने प्रिय शिष्य भृगुवंशी विपुल को बुलाकर कहा । देव शर्मा बोले- वत्स! मै यज्ञ करने के लिये जाऊँगा। तुम मेरी इस पत्नी रुचि की यत्नपूर्वक रक्षा करना; क्योंकि देवराज इन्द्र सदा इसको प्राप्त करने की चेष्टा में लगा रहता है। भृगुश्रेष्ठ! तुम्हें इन्द्र की ओर से सदा सावधान रहना चाहिये; क्योंकि वह अनेक प्रकार के रूप धारण करता है। भीष्मजी कहते हैं- राजन! गुरु के ऐसा कहने पर अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी, जितेन्द्रिय तथा सदा ही कठोर तप में लगे रहने वाले धर्मज्ञ एवं सत्यवादी विपुल ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। महाराज! फिर जब गुरुजी प्रस्थान करने लगे तब उसने पुन: इस प्रकार पूछा। विपुल ने पूछा- मुने! इन्द्र जब आता है तब उसके कौन-कौन-से रूप होते हैं तथा उस समय उसका शरीर और तेज कैसा होता है? यह मुझे स्पष्ट रूप से बताने की कृपा करें। भीष्मजी कहते हैं- भरतनन्दन! तदनन्तर भगवान देव शर्मा ने महात्मा विपुल से इन्द्र की माया को यर्थाथ रूप से बताना आरम्भ किया। देव शर्मा ने कहा- ब्रम्हर्षे! भगवान पाकशासन इन्द्र बहुत-सी मायाओं के जानकार हैं। वे बारंबार बहुत-से रूप बदलते रहते हैं। बेटा! वे कभी तो मस्तक पर किरीट-मुकुट, कानों में कुण्डल तथा हाथों में वज्र एवं धनुष धारण किये आते हैं और कभी एक ही मुहुर्त में चाण्डाल के समान दिखायी देते हैं, फिर कभी शिखा, जटा और चीर वस्त्र धारण करने वाले ॠषि बन जाते हैं। कभी विशाल एवं हष्ट-पुष्ट शरीर धारण करते हैं तो कभी दुर्बल शरीर में चिथड़े लपेटे दिखायी देते हैं। कभी गोरे, कभी सांवले और कभी काले रंग के रूप बदलते रहते हैं। वे एक ही क्षण में कुरूप और दूसरे ही क्षण में रूपवान हो जाते हैं। कभी जवान और कभी बूढ़े बन जाते हैं। कभी ब्राम्हण बनकर जाते हैं तो कभी क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का रूप बना लेते हैं। वे इन्द्र कभी अनुलोम संकर का रूप धारण करते हैं तो कभी विलोम संकर का। वे तोते, कौए, हंस, और कोयल के रूप में भी दिखायी देते हैं। सिंह, व्याघ्र और हाथी के भी रूप बारंबार धारण करते हैं। देवताओं, दैत्यों और राजाओं के शरीर भी धारण कर लेते हैं। वे कभी हष्ट-पुष्ट कभी वातरोग से भग्न शरीर वाले और कभी पक्षी बन जाते हैं। कभी विकृत वेश बना लेते हैं। फिर कभी चौपाया (पशु), कभी बहुरूपिया और कभी गँवार बन जाते हैं। वे मक्खी और मच्छर आदि के रूप भी धारण करते हैं। विपुल! कोई भी उन्हें पकड़ नहीं सकता। तात! औरों की तो बात ही क्या है? जिन्होंने इस संसार को बनाया है वे विधाता भी उन्हें अपने काबू में नहीं कर सकते। अन्तर्धान हो जाने पर इन्द्र केवल ज्ञानदृष्टि से दिखायी देते हैं। फिर वे वायु रूप होकर तुरंत ही देवराज के रूप में प्रकट हो जाते हैं। इस तरह पाकशासन इन्द्र सदा नये-नये रूप धारण करता और बदलता रहता है। भृगुश्रेष्ठ विपुल ! इसलिये तुम यत्नपूर्वक इस तनुमध्यमा रुचि की रक्षा करना जिससे दुरात्मा देवराज इन्द्र यज्ञ में रखे हुए हविष्य को चाटने की इच्छा वाले कुत्ते की भांति मेरी पत्नी रुचि का स्पर्श न कर सके।। भरतश्रेष्ठ! ऐसा कहकर महाभाग देव शर्मा मुनि यज्ञ करने के लिये चले गये।
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