महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 44 श्लोक 50-56
चतुश्चत्वारिंश (44) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
‘हम लोग इस विषय में यथार्थ बात जानना चाहते हैं। भीष्म जी काशिराज की तीन कन्याओं को हरकर लाये थे, उनमें से दो को एक श्रेणी में रखकर एक वचन का प्रयोग किया गया है, यह मानना चाहिये, तभी आदिपर्व अध्याय 102 के वर्णन की संगति ठीक लग सकती है। आप हमारे लिये पथ प्रदर्शक होइये। 'उन लोगों के इस प्रकार कहने पर सत्यवान ने कहा-‘जहाँ उतम पात्र मिलता हो वहीं कन्या देनी चाहिये।' इसके विपरीत कोई विचार मन में नहीं लाना चाहिये। मूल्य देने वाला यदि जीवित हो तो भी सुयोग्य वर के मिलने पर सज्जन पुरुष उसी के साथ कन्या का विवाह करते हैं। फिर उसके मर जाने पर अन्यत्र करें- इसमें तो संदेह ही नहीं है। ‘शुल्क देने वाले की मृत्यु हो जाने पर उसके छोटे भाई को वह कन्या पति रूप में ग्रहण करे अथवा जन्मान्तर में उसी पति को पाने की इच्छा से उसी का अनुसरण ((चिन्तन)करती हुई आजीवन कुमारी रहकर तपस्या करे। ‘किन्हीं मत में अक्षत योनि कन्या को स्वीकार करने का अधिकार है। दूसरों के मत में यह मन्द प्रवृति- अवैध कार्य है। इस प्रकार जो विवाद करते हैं, वे अन्त में इसी निश्चय पर पहुँचते हैं कि कन्या का पाणिग्रहण होने से पहले का वैवाहिक मंगलाचार और मन्त्र प्रयोग हो जाने पर जहाँ अन्तर या व्यवधान पड़ जाये, अर्थात अयोग्य वर को छोड़कर किसी दूसरे योग्य वर के साथ कन्या ब्याह दी जाये तो दाता को केवल मिथ्या भाषण का पाप लगता है (पाणिग्रहण से पूर्व कन्या विवाहित नहीं मानी जाती है)। ‘सप्तपदी के सातवें पद में पाणिग्रहण के मन्त्रों की सफलता होती है (और तभी पति-पत्नी भाव का निश्चय होता है)। जिस पुरुष को जल से संकल्प करके कन्या का दान दिया जाता है वही उसका पाणिग्रहीता पति होता है और उसी की वह पत्नी मानी जाती है। विद्वान पुरुष इसी प्रकार कन्यादान की विधि बताते हैं। वे इसी निश्चय पर पहुँचे हुए हैं। ‘जो अनुकुल हो, अपने वंश के अनुरूप हो, अपने पिता-माता या भाई के द्वारा दी गयी हो और प्रज्वलित अग्नि के समीप बैठी हो, ऐसी पत्नी को श्रेष्ठ द्विज अग्नि की परिक्रमा करके शास्त्र विधि के अनुसार ग्रहण करें।
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